Jan 20, 2013

हे राम!


महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है... 


तथ्यों को तोड़ मरोड़कर राम कथा को नारी वादी दृष्टिकोण से देखने और राम के चरित्र पर उंगली उठाने के कारण यह पोस्ट मुझे अच्छी नहीं लगी। मैने इशारा किया तो मेरे कमेंट को पूर्वाग्रह मान लिया गया। अब आगे बात करना बेकार था इसलिए मैने दुबारा कोई कमेंट नहीं किया। मेरी समझ में यह बात भी नहीं आई कि किसी एक कथा का एक अंश सत्य और दूसरा अंश मिथ्या कैसे हो सकता है! आप यह कह सकते हैं कि यह मेरी अपने इष्ट देव के प्रति अंधभक्ति है लेकिन मुझे तो आज तक संपूर्ण जगत में राम जैसा चरित्रवान दूसरा पुरूष नहीं मिला। राम आज भी पुरूषोत्तम हैं और लगता है सृष्टि के समाप्त होने तक बने रहेंगे। पोस्ट में कई उदाहरण देकर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि महिलाओं का शोषण भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है। 

पोस्ट के अंत में लिये गये संकल्प और शुभेच्छा का मैं समर्थन करता हूँ और भगवान राम से प्रार्थना करता हूँ कि हमें हमारे अपराधों के लिए क्षमा करते हुए यह शुभेच्छा पूर्ण करें।

पोस्ट से अच्छी इनपर आई टिप्पणियाँ और प्रवीण शाह जी, अरविंद मिश्रा जी तथा अनूप शुक्ल जी के बीच हुए रोचक संवाद हैं। सभी टिप्पणियाँ आप वहाँ जाकर पढ़ सकते हैं। मैं यहाँ आदरणीय सुज्ञ जी की टिप्पणियों को सहेजना चाहता हूँ जो मुझे अच्छी लगीं। विचारों में भिन्नता है और सभी को अपने विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता है इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी सहेजी टिप्पणियाँ सभी को अच्छी ना लगें। 

ऐसे तो सबकुछ शोषण ही साबित कर लिया जाएगा. जब सहजीवन होगा साथ साथ जीना होगा तो ऐसी तो हजारों घटनाएँ घटती चली जाएगी. बसँत में कोई फूल भी पहले पुरूष के बाग में खिल गया तो यह नारी का शोषण होगा. शोषण न हुआ जैसे साँस लेने का नाम ही शोषण हो गया. सीता महान थी,सत्वशाली थी,सती (सत्य पर अटल के अर्थ मेँ) थी,वह देवी ही थी,दिव्यता के सारे गुण उनमें थे. जब उन्होनें दबी जुबा से भी शोषण की शिकायत नहीं की तो उनके आदर्श समर्पण को शोषण नाम देने वाले हम होते ही कौन है? सीता ने अपने समान ही सक्षम राम का वरण किया यह स्वतँत्र निर्णय था. वन मेँ जाने का निर्णय भी मिल बैठ कर सीता का स्वेच्छिक निर्णय था,अपने निर्णय पर ही प्रतिपक्ष से सवाल कैसे हो सकता था? आज के युग में निजी स्वार्थ, निजी स्वतंत्रता, स्वहित आदर्श स्थिति हो सकती है पर उस युग में मन वचन और काया से परस्पर पूर्ण समर्पण आदर्श स्थिति ही नहीं आदर्श व्यवस्था थी.

सबसे पहले शोषण के मायने अर्थ और काल अनुसार उसके भावों का निर्धारण हो। फिर हम आदिकालिन शोषण स्थापित करें। आज हमें जो वस्तु पसंद नहीं तो उस आजकी पसंद को भूतकाल पर कैसे थोप सकते है? सभी कुछ काल, स्वभाव, परिस्थिति और नियति अनुसार बदलता रहता है हम बीत चुके या रीत चुके काल के आदर्श बदल ही नहीं सकते, बदलने की छोडो, हम तो अपनी स्वयं की मानसिकता को किनारे रखकर विश्लेषण तक कर पाने के योग्य नहीं है। हमारे लिए तो आज यह सोचना दुष्कर है कि काल विशेष में कौनसा व्यवहार शोषण माना जाय और कौन सा नहीं? इसलिए अनादिकाल की व्याख्या करना और मुक्त मन से सदा-सर्वदा के लिए शोषण आरोपित कर देना वस्तुतः अनधिकार चेष्टा है।


आज की तरह पहले देवीय गुण त्यक्त नहीं थे, देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था। क्या स्त्री क्या पुरूष सभी देवीय गुणवान बनने और कहलवाने को तत्पर रहते थे। आज की तरह देवी कहलवाना बुरा या निंदा आलोचना का कारण नहीं बना करता था इसलिए लोग अपनाते थे, लालायित रहते थे। त्यागते नहीं थे। सीता का अन्तिम प्रयाण आत्महत्या नहीं, नश्वर संसार से मुक्ति जीवन प्रयोजन पूर्णता के निर्णय रूप समाधी या निर्वाण था। बस इसी तरह शब्द पर सवार होकर संदेह चले आते है। राम कथा के विभिन्न स्वरूप प्राप्त होते है, परफेक्ट घटना या असल सम्वाद क्या थे निश्चय से कोई नहीं कह सकता। फिर भी गलत या सही को नापने का एक मोटा तरीका है हमारे पास। इतनी भिन्न भिन्न कथाओं में इतना विशाल काल बीत जाने के बाद भी राम मर्यादापुरूषोत्तम स्वीकार किए जाते है और सीता सर्वश्रेष्ट सती। अवगुणवाद या निन्दा का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

कष्ट महसुस हो तो कष्ट बनता है और कष्ट लेकर भी किसी को सुखी महसुस करने की मानसिकता देवीय गुण बन जाती है। जैसे अपनो के प्रति राग मोह ममता देवीय गुण है, खट कर, कष्ट उठाकर, भी ममता प्रदान की जाती है क्या इसे कष्ट उठाना कहें ममता का लाभ प्राप्त करने वाले को शोषक कहें? पता नहीं यह सती शब्द से जलाने की कुप्रथा कब आई किन्तु निश्चित ही यह आदिकालीन नहीं है। रामायण काल में तो सत्यव्रत या सती का अर्थ सत्य के प्रति निष्ठावान के लिए हुआ करता था। 

मै एक उस भूतकाल के भावो को समझने के लिए भविष्यकालिन काल्पनिक उदाहरण से समझाता हूँ......भविष्य मेँ प्रेम करना और विवाह करना भी शोषण माना जाएगा क्योकि उस समय की नारियोँ पूरे यक़िन से कह सकेगी कि पुरूष,प्रेम और विवाह मात्र मातृत्व धारण करवाने के लिए ही करते है और इस प्रकार मातृत्व धारण का भयँकर कष्ट मात्र स्त्री को भोगना होता है.ऐसे माहोल में सहज आकर्षण भी हर दृष्टि मेँ कुटिल अत्याचार ही नजर आएगा. और 'मातृत्व' का महिमा-वचन 'देवी' बनाने जैसी चाल के रूप मेँ ही जाना समझा जाएगा. अतीत के प्रश्नों को समझने से पहले युगोँ युगोँ के अंतराल और संस्कृति के विकास क्रम को समझ लेना आवश्यक है.फिर से दोहराता हूँ....रामायण काल बहुत ही प्राचीन है.

मुझे यह पता नहीं चलता कि राम और राम से भक्ति ही कटघरे में क्यों है? क्या इस त्रासदी का अन्तिम कारण आपने राम और राम भक्ति में निश्चित ही कर लिया है। इसका एक संकेत यह भी होता है कि दूसरे सारे कारण है ही नहीं। एक मात्र हमारी 'राम संस्कृति' ही कारण है। यह भी ठीक ऐसा ही आरोप है जैसा संस्कारों में विकार का दोष मात्र पश्चिमि संस्कृति को दिया जा रहा था। कहा जा रहा था जिसकी जैसी नियत होती है उसे पश्चिमि संस्कृति वैसी ही नजर आती है। आज भारतीय संस्कृति पर अगुली उठाते हुए दृष्टि और दृष्टिकोण बदल क्यों जाता है?

गदर फिल्म का विख्यात सम्वाद है.... कहो पाकिस्तान जिंदा बाद!! -पाकिस्तान जिंदाबाद!!.... अब कहो हिंदुस्तान मुर्दाबाद..... जब तक तुम हिंदुस्तान मुर्दाबाद नहीं कहते हम कैसे मान लें तुम सच्चे मुसलमान हो गए हो?....कुछ ऐसी ही फिलिंग आ रही है....पाश्चात्य संस्कृति पर आरोप लगाना छोडो!!.....हमने कहा हम गलत थे चलो छोड दिया.....अब अपनी सँस्कृति की निंदा भी करो....हमने कहा यह हमसे नहीं होगा....यदि अपनी सँस्कृति की निंदा नहीं करोगे तो कैसे मान लें कि तुम प्रगतिशील हो गए हो!!! :) :):(

हम धर्म की क्या रक्षा करेंगे, वस्तुतः धर्म हमारी रक्षा करता है. हिंदु धर्म मेँ फ़तवा जारी करना शुभ या सद्कर्म नहीँ है, न फतवे की हमारी हैसियत बनती है.आप निश्चिंत होकर किसी भी के विरुद्ध खड़ी रह सकती है.आपके विचार आपके अपने है वे विचार जब तक आप तक ही सीमित हो भला उसका किसी से क्या लेनादेना हो सकता है? लेकिन वे विचार अगर सार्वजनिक व्यक्त होकर दूसरों को प्रभावित करने की सम्भावनाएँ खडी करते है,महापुरूषोँ के चरित्र मेँ भ्रांतियाँ पैदा कर मान और आस्था घटाने में सहयोग करते है तो विनम्रता से सँकेत करना ही पडता है जिसे आप भावनात्मक शोषण कहती है.जानता हूँ हिंदु धर्म के पास आत्मघात की हद तक उदारता है आराध्यों का इतना चरित्र हनन स्वीकार कर लेते है कि वे आराध्य ही ना रहे. फिर न रहेगा बांस ना बजेगी बांसूरी. इसलिए आप भले स्वतंत्रता से आराध्यों का चरित्र हनन सोचें पर उस अपनी सोच को सार्वजनिक थोपने का कोई अधिकार नहीँ है. हमारा मात्र इतना सा प्रतिकार है बस. जैसे आप मानती है कि आप सच के साथ है, वैसे ही सभी अन्य भी स्वयं को सच के साथ ही खडा पाते है,राम और सीता के साथ खडा पाते है किंतु स्वयं राम और सीता का सम्मान व अस्तित्व किस में है नहीं जानते.

सामाजिक मान्यताओं को आप पुरानी भारतीय संस्कृति नहीं कह सकते। यदि उछ्रंखलता व असंयम के खिलाफ अनुशासन या संयम के लिए प्राच्य भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है तो इसमें बुरा क्या है? बुराई तो उन 'सामाजिक मान्यताओं' रूढ परम्पराओं, कुरीतियों में है जिसका ढोल पीट कर उन्नति और विकास को बाधित किया जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि करे कोई और भरे वह जिससे हमें अरूचि हो? अर्थात् असंगत रूढियों, गलत परम्पराओं और कुरीतियों के ढंढेरे की सजा निर्दोष प्राच्य संस्कृतियाँ क्यों भुगते? महज इसलिए कि हमें दोनो में अन्तर करने की योग्यता नहीं है इसलिए………

.........................

27 comments:

  1. शोषण का गणि‍त तो ये है कि‍ जि‍सका जहां कहीं जब मोक्‍़ा लगता है, शोषण्‍ा से नहीं चूकता

    ReplyDelete
  2. कईं लोग कहते है कि हम सुज्ञ जी की बातें समझ ही नहीं पाते... इसलिए उपेक्षा से मुँह बिगाडे चल देते है :)

    खैर,..आपने न केवल मेरी बातों को समझा बल्कि उन्हें यहाँ सलीके से प्रस्तुत भी किया.

    मेरी बातों से सभी का सहमत हो जाना कोई जरूरी नहीं है बस यह सब कहने का प्रयोजन मात्र यह होता है कि जो हम चेताना चाहते है लोगों का एक बार ध्यान अवश्य चला जाय.

    आपका बहुत बहुत आभार!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभारी तो हम आपके हैं जो आपने इतने अच्छे ढंग से बात को रखा।

      Delete
  3. किसी विषय पर लिखना बोलना सरल है परन्तु क्या सभी लोग उसे अपने जीवन में इमानदारी से निभाते है,उत्तर है,,,,नहीं,,,

    recent post : बस्तर-बाला,,,

    ReplyDelete
    Replies
    1. बोलना सरल, निभाना उतना ही कठिन ..यह तो मानी हुई बात है।

      Delete
  4. मुझे बस इतना कहना है कि सुज्ञ जी एक सुलझे और तर्कपूर्ण विचारक हैं.उनके विचार हमेशा साफ़ और पूर्वाग्रह से रहित होते हैं.
    .
    .बाकी देवेन्द्र भाई,यह कृत्रिम नारीवाद का दौर चल रहा है,जिसमें वे लोग सबसे आगे हैं,जिनके दोहरे आचरण जग-जाहिर हैं.जिन सीता ने अपने राम के लिए सब-कुछ सहा,क्या उनको कुछ लोगों द्वारा,उनके बहाने की जा रही छीछालेदर सुख देगी?
    .
    .सबसे बड़ी बात यह भी है कि ब्लॉग-जगत में बहुत कुछ लिखा जा रहा है और कुछ की जगह कूड़ेदान के ही लायक है.इसलिए अपने राम को इतना छोटा न समझो,कुछ लोग इसी बहाने अपने को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं !

    ReplyDelete
    Replies
    1. कृतिम नारीवाद, दोहरा आचरण..मैं यह सब नहीं जानता न जानना चाहता हूँ। मुझे जो अच्छा लगता है उसे अच्छा और जो खराब लगता है उसे खराब लिखता हूँ। यह मुगालता भी नहीं पालता कि जो मैं लिख रहा हूँ वही सही है बाकी सभी गलत। अभिव्यक्ति का अधिकार है सो अभिव्यक्त करता रहता हूँ। शेष राम जाने।

      Delete
  5. जब भालू, बंदरों के ऊपर राक्षसों के दमन आम थे, जीवन की गरिमा के ज्ञान का प्रसार करने वाले अहिंसकों की आस्तियों के ढेर लगाए जा रहे थे, स्त्रियॉं के अपहरण और पुरुषों के बहु-विवाह आम थे, जनता की आवाज़ नापैद थी, उस समय में भी एक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की उपस्थिति अलहदकारी है ...

    ReplyDelete
  6. .
    .
    .
    आदरणीय देवेन्द्र पान्डेय जी,

    अदा जी ने समयाभाव के कारण अपनी पोस्ट पर टिप्पणियों को फिलहाल स्थगित कर दिया है... जबकि मेरे अनुमान से पोस्ट के विषय में बहुतों द्वारा बहुत कुछ कहा जाना शेष था...

    मैं आपकी इस पोस्ट पर सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि पुरातन कथाओं के पात्रों द्वारा किये गये व्यवहार व उस तरह के व्यवहार के पीछे की सोच/कारणों की निश्चित ही बड़ी गूढ़/रहस्यमयी/विस्मयकारी व्याख्यायें हो सकती हैं व ऐसा ही किया भी जाता है... इस तरह से चरित्र के देवत्व को बरकरार रखा व पुष्ट भी किया जाता है...इस सब में नया कुछ नहीं... हर गली-चौराहे-सभागार-सत्संग मंडप में यह सभी सुन/देख रहे हैं...

    पर यक्ष प्रश्न वही है जो अदा जी ने अपनी समापन टीप में उठाया है, यानी... "वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, मानस इत्यादि में क्या लिखा गया है, उनका अर्थ क्या है, सच पूछिए तो आम स्त्री को उनसे कोई सरोकार नहीं है, मतलब सिर्फ इस बात से है, कि जनमानस ने क्या सुना और क्या समझा । मैने पचासों स्त्रियों से इस विषय में बात की है, और यकीन कीजिये सबके मन में ये सारे प्रश्न हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि वो बोल नहीं पायीं हैं"...

    मैं पहले भी कहता रहा हूँ कि हम अब ज्यादा समय तक मुद्दों को कालीन के नीचे नहीं दबा सकते, हमें उन से जूझना ही होगा !

    आखिर खापें भी अपने गोत्रों व गोत्र में विवाह संबंध न करने का आधार ऋषि परंपरा को बताती हैं... दहेज भी परंपरा के नाम पर जिन्दा है... कानून हक में होने पर भी लड़कियाँ भले ही कितनी गरीबी में रह रही हों, पर पिता की संपत्ति पर भाई का एकाधिकार मानती हैं... जो कहने की कोशिश हो रही है वह यह है कि समस्या तभी सुलझेगी जब उसके मूल पर प्रहार होगा... पर यदि हम मूल को मानने को ही तैयार नहीं तो निश्चित तौर पर हमारा कोई भविष्य नहीं...


    आभार आपका !


    ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय प्रवीण शाह जी,

      मेरी समझ से मूल पर प्रहार करने का मतलब कालीदास बनना नहीं है। मूल पर प्रहार करने का मतलब मर्यादा पुरूषोत्तम राम के चरित्र पर उंगली उठाना नहीं है। राम कथा की तोड़ मरोड़ कर व्याख्या करना नहीं है। यदि मूल पर प्रहार करना यह सब है तो मुझे अपनी कूप मंडूकता प्रिय है। पचास स्त्रियों के मन में यह बात स्वाभाविक रूप से उठ सकती है कि राम द्वारा सीता को त्यागना गलत था। मैं भी कहता हूँ..गलत था। भगवान राम स्वयम् कहते हैं ..गलत है। मुझसे अपराध हुआ है। लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि यह तत्कालीन राज धर्म था। राज धर्म का निर्वहन कठिन होता है। उसमें व्यक्तिगत अनुचित निर्णय भी जन हित में लेने पड़ते हैं। हमे जब इतना कष्ट हो रहा है राम द्वारा सीता को त्यागने का तो यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राम को कितना कष्ट हुआ होगा! रूढ़िवादी परंपराओं, कुप्रथाओं के जड़ में प्रहार करने से कौन रोकता है? यदि ऐसा न होता तो मैने उस संकल्प और शुभेच्छा के पूर्ण होने की प्रार्थना न की होती।
      सादर।

      Delete
    2. .
      .
      .
      जी,

      आपने वहाँ अपनी टीप में लिखा है "लेख के अंतिम पैरा से पूर्णतया सहमत।...आमीन।"

      और लेख का अंतिम पैरा है... आज सदियों बाद, स्त्री ने जब सिर उठाना शुरू किया है, तो हर तरह के अंजाम वो भुगत रही है। आज़ादी कोई भी हो, आसानी से नहीं मिलती, खून बहाना ही पड़ता है, यहाँ स्त्रियाँ अपनी अस्मिता लुटा रही हैं । 'दामिनी' इसका ज्वलंत उदाहरण है। खाप पंचायतों की कहर और ऑनर किलिंग जैसे हादसे, स्त्री स्वतंत्रता की राह पर स्त्रियों का बलिदान मांग रहे हैं, और स्त्रियाँ दे रहीं हैं ये बलिदान ।शायद आने वाले दिन स्त्री के लिए अच्छे होंगे, क्योंकि अब वो अपनी पहचान बनाने के लिए कटीवद्ध है। इतने बलिदानों के बाद भी अगर, समाज में नारी ने एक इंसान का ही दर्ज़ा पा लिया, तो वही काफी होगा, देवी बनने की चाह न उसे पहले थी और न अब है।

      हम नारी को भी पुरूष की भाँति ही हर तरह के रंग, कुछ अच्छाई, कुछ कमजोरियाँ लिये एक इंसान ही समझें, उससे देवी बनने की अपेक्षा न करें, न उसे देवियों के उदाहरण गिनायें, यही आज की नारी की अपेक्षा है... और आप सहमत हैं इस सबसे... मैं संतुष्ट हूँ और अब आगे कुछ नहीं कहना चाहता, आपसे बहस की कोई गुंजाईश नहीं... यदि मेरे कुछ लिखे से आपकी भावनायें आहत हुई तो क्षमायाचना के साथ...


      सादर, आभार सहित...


      ...

      Delete
    3. @ "वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, मानस इत्यादि में क्या लिखा गया है, उनका अर्थ क्या है, सच पूछिए तो आम स्त्री को उनसे कोई सरोकार नहीं है,

      प्रवीण जी,
      जिन मूल लिखे गए भावोँ से यदि सरोकार ही नहीँ है तो उसी लिखे के आधार पर उन्ही ग्रंथो के पात्रों पर सवाल खडे करने का क्या अधिकार है? और उसके कारण क्या है? उसके पिछे का उद्देश्य क्या है?

      अब बात करते है आगे के वाक्यांश "मतलब सिर्फ इस बात से है, कि जनमानस ने क्या सुना और क्या समझा।"

      प्रवीण जी,
      यह बात भी तब प्रत्यक्ष होती है जब कोई दावा करे कि राम नें सीता का त्याग किया इस बात को ही सुनकर और उसे समझ कर बिना किसी अन्य कारण के मैने अपनी पत्नी का त्याग किया और वह इन्ही ग्रंथो से सीखकर ही किया. यदि ऐसा कोई जडता भरा विकार नहीँ है तो 'सुने' 'समझे' के बहाने मात्र है. और यह स्वयं को सही कहने का प्रलाप भर है. बिना मूल से सरोकार रखे, जड-भरत की तरह अँध प्रहार मूर्खता है और ऐसी मूर्खताओं से कोई समस्या तो नहीं सुलझेगी, उलट अंध-प्रहारियों की एक नई जमात खडी हो जाएगी.

      Delete
    4. प्रवीण जी,
      लेख के अंतिम व उपरोक्त दोहराए गए पैरा से देवेंद्र जी के साथ मैँ भी पूर्णतया सहमत हूँ!! आगे आपके नोट मेँ हल्का सा सुधार किकरते हुए उससे भी सहमत है. जो कि यह है- उससे देवी बनने की अपेक्षा न करें, न उसे देवियों के उदाहरण गिनायें, "न वे किन्ही देवियोँ का चरित्र हनन या सम्मान में न्यूनता लाने का प्रयास करे"

      Delete
    5. सुज्ञजी,
      अपने से ज्यादा ज्ञानीजनों को सीख देना या स्पष्टीकरण देना बंद कर दीजिये। आपका मज़ाक उड़ाते जो जवाब सन्दर्भित पोस्ट में आये हैं, वो भी मेरे लिये उतने ही पीड़ादायक रहे हैं जितनी खुद वो पोस्ट।
      रही बात आपकी सीखों की तो मैं आपको बहुत मौके देने वाला हूँ, मुझपर बरसाईयेगा:)

      Delete
    6. .
      .
      .
      @ आदरणीय सुज्ञ जी,

      भले ही हल्का सा सुधार करते हुऐ ही... मेरे लिये यह बहुत बड़ी बात है कि आप मुझसे सहमत तो हैं... आपसी संवाद की यह उपलब्धि है... संवाद चलता रहना चाहिये इसीलिये... :)


      ...

      Delete
    7. संजय जी,आपके स्नेह के प्रति कृतज्ञ हूँ. विचलित न होँ,सब होता रहता है. किसी के तिल भर अवदान के प्रति भी हम कैसे कृतघ्न बने रह सकते है.ग्रंथो में वर्णित महापुरूष तो कृपा सिंधु है.

      Delete
    8. @ आदरणीय प्रवीण जी,

      संवाद से अधिक बला की मजेदार सहमति है जो जल्दी समझ आ जाती है।
      ...

      Delete
  7. रामचरितमानस पढ़ता हूँ तो आँखों में आँसू छलक आते हैं, एक नहीं कई बार। उस समय एक दूसरे के ऊपर त्याग हो जाने वाले चरित्रों को अधिकारों वाले युग में समझना कठिन है। राम मेरे राम रहेंगे, तर्क के लिये भी उन्हें किसी चर्चा का हिस्सा नहीं बनने दूँगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रवीण पाण्डेय जी विश्वास रखें आपकी भावनाओं का सम्मान अक्षुण्ण रहेगा!!

      Delete
  8. अच्छा है। एक ही घटना को लोग अलग-अलग तरीके से ग्रहण करते हैं। समय के अनुसार एक ही बात अलग-अलग तरह से व्याख्यायित होती है। हरेक को अपने-अपने अनुसार चीजों को देखने का हक है। लोग माने न माने लोग देखते हैं।

    ReplyDelete
  9. आपके उस ब्लाँग पर टिप्पणी प्रकाशित नही हो रही वैसे भी उसका मोवाइल वर्सन क्योँ बंद किये लोडिँग टाइम ज्यादा लगता हैँ मोबाइल से
    आपके पोस्ट नेता हैँ या मच्छर के लिए टिप्पणी
    आप तो पेट की की जुवाँ पर ले आते कौन सा जादू सिखा हैँ जरा हमेँ भी बताना हमारी तो अटकी रह जाती हैँ ..आपकी लब्जोँ के ये वाण बडे प्यारे हैँ बार बार पढनेँ को मन कर रहा हैँ

    आज बहुत दिनो के बाद एक कहानी लिखी अपने ब्लाँग उमँगे और तरंगे पर कहानी मेँ हैँ एक रात कि बातएक रात की बात हैँ आँसमा के चाँद को शुकून से देख रहा था बस देख रहा था कि चाँद को और चाँदनी रात हो गयी और एक रात वह थी जो चाँद को देख रहा था...[ पुरा पोस्ट पढने के लिए टाईटल पर क्लिक करेँ ]

    ReplyDelete
  10. टिप्पणियों को सँजो लेने से उस पर आई टिप्पणियाँ भी विचारों को पूर्णता देती प्रतीत होती है ...अच्छा लगा एक साथ पढ़ना...

    ReplyDelete