Dec 23, 2012

बलात्कार

बलात्कार! बलात्कार! बलात्कार! अखबार, चीखता है बार-बार! लेकिन समूचा ब्लॉग जगत..फेसबुक हिल गया इस बार। जहाँ जाओ वहीं आक्रोश देखने को मिला। पढ़ते-पढ़ते कभी मनुष्य होने पर शक तो कभी शर्मिंदगी का एहसास इस कदर प्रभावी होने लगा कि लगा दिमाग की नसें फट जायेंगी। कितना पढ़ा जाय..कितना कमेंट किया जाय हर ब्लॉग में! अंतर्जाल की दुनियाँ से बाहर निकला तो कहीं कुछ नहीं, विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों की थोड़ी बहुत भीड़-भाड़, जुलूस.. वह भी सीमित दायरे में। कॉलेज, विश्वविद्यालय के सामने थोड़ी बहुत गैदरिंग। टीवी, अखबार बता रहा है दिल्ली की जनता में गहरा आक्रोश है। क्या यह आक्रोश सचमुच इतना है कि राजनेताओं को मतों की चिंता सतायेगी? क्या यह आक्रोश इतना बड़ा है कि देश की आम जनता धर्म, जाति के अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो मतदान करेगी ? काश! ऐसा हो और सरकारें इस दिशा में चिंतित हों। कानून व्यवस्था सुधरे, पूरे देश में फास्ट ट्रैक अदालतें गठित हों। यह सब जरूरी है लेकिन काश! जो भी इससे चिंतित हैं वे अपनी सामाजिक सोच के बारे में भी पुनर्विचार करें! यह एक सामाजिक समस्या है इसका हल हमारे समाज को ही करना है। निःसंदेह मृत्यु का भय, सजा का भय अपराधी को अपराध करने से रोकता है लेकिन समाज यह भी तो तय करे कि नारी का अपमान अपराध है। विवाह में दहेज की मांग करना, जबरी  लेना और मजबूरी में देना, दोनो अपराध है। कानून तो है ही लेकिन कौन मानता है? क्या हम सभ्य कहलाने वाले लोग, किसी न किसी बहाने से रोज इस कानून को नहीं तोड़ते? ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.. बेटा ही पैदा हो..सामर्थ्यवान हुए तो पैदा ही नहीं होने देते..न चाहने पर भी पैदा हो गईं तो मन ही मन भाग्य को कोसते हुए  झूठा राग अलापते फिरते हैं..लक्ष्मी आई! लक्ष्मी आई! विवाह के लिए जन्म के बाद से ही दहेज जुटाना प्रारंभ कर देते हैं। बार बार इनके कारण ईज्जत खतरे में पड़ जाती है। मजा यह कि बगैर इनके सृष्टि भी नहीं चलती। सृष्टि चलती होती तो? हे भगवान! तुमसे कोई चूक तो नहीं हो गई? नर-नारी दोनो को स्वतंत्र कर देते..जो चाहे जैसे चाहे  भोग..संभोग करे.. बच्चे पैदा करे..हे अर्द्ध नारीश्वर! तूने प्राणी मात्र को जिस्म से भी दोगला क्यों नहीं बनाया?

इस विषय में ब्लॉग जगत की हलचल को मैं जितना देख पाया उसमें कुछ पोस्ट ऐसी आईं जिसने दिमाग को हिला कर रख दिया। नारी ब्लॉग से सबसे पहले पूरी घटना से परिचित हुआ। धीरे-धीरे पोस्ट दर पोस्ट..लेकिन सक्रिय और सार्थक भूमिका निभाई भाई गिरिजेश जी ने। खुद को आलसी कहते हैं लेकिन उनकी सक्रियता देख कर ऐसा लगा कि वे खुद को आलसी इसलिए कहते हैं कि जितना लिखना चाहते हैं लिख नहीं पाते। न लिख पाने की बेचैनी से ही वे खुद को आलसी समझते हैं वरना जितना वे लिखते हैं उतना तो हम सोच भी नहीं पाते। जी हाँ, आज मैं बात कर रहा हूँ उनके इस आलेख की... 

बलात्कार, धर्म और भय ...इस आलेख को आपने पढ़ा होगा। नहीं पढ़ा है तो कुछ जरूरी है जो आपसे छूट गया। उन्होने रामायण और महाभारत के दृष्टांत देकर यह समझाने का प्रयास किया है कि नारी को लेकर शक्तिशाली पुरूषों की सोच क्या थी? उन्होने आईना दिखाने का प्रयास किया है कि राष्ट्र, धृतराष्ट्र की तरह अंधा है। हम सब में रावण और दुःशासन बैठा है। समाधान के लिए वे आगे लिखते हैं..

..यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?..

इस पोस्ट पर शिल्पा मेहता जी की तीखी प्रतिक्रिया सोचने पर विवश करती है....

हम सब - हम ब्लोगर भी, सभी - इसी व्यवस्था के भाग हैं । नारीवादी बनने वाले भी, मानव वादी बनने वाले भी और पुरुषवादी बनने वाले भी । इस ही ब्लॉग जगत में - जो हमारे समाज का प्रतिनिधि आइना है - (जो बाकी समाज से कहीं बेहतर होना चाहिए क्योंकि यहाँ कम से कम सब पढ़े लिखे तो हैं न ?) मगर इस प्रबुद्ध ब्लॉग जगत में भी यही एटीट्यूड देखती आई हूँ । अत्यंत गूढ़ ग्यानी माने जाने वाले जन भी स्त्रियों को अलग (नीचे) नज़रिए से देखते दिखे । अपने परिवार की स्त्रियों को मान और प्रेम देते हुए भी (जो अपने आप में बहुत महानता का द्योतक है हमारे देश की मानसिकता को देखते हुए - इस देश में तो वह भी नहीं पाया जाता) दूसरी स्त्रियों को - जो जानी पहचानी नहीं हैं, सिर्फ "स्त्री" हैं - उनके लिए एक हिकारत का भाव जब इस पढ़े लिखे "प्रबुद्ध" वर्ग में है - तो बाकी अनपढ़ लोगों से क्या आशा रखी जाए ।

वे आगे लिखती हैं....

युधिष्ठिर और भीष्म के चरित्रों से मुझे सख्त चिढ है , और शायद हर स्त्री को होगी । 

राम - जो अपनी स्त्री के प्रेम में इतना बड़ा युद्ध कर गए, उनके चरित्र पर नारीविरोध के छींटे डालने से भी नहीं चुके हमारे महान ग्रंथकार । उन पर भी सीता की अग्नि परिक्षा और परित्याग जैसे लांछन मढ़ दिए । ग्रंथों में "क्षेपक" की बातें करने वाले यह नहीं मानते कि ये मूर्खतापूर्ण किंवदंतियाँ भी क्षेपक हैं । पता नहीं जंगल में सीता के नाम पर रोते बिलखते तड़पने वाले राम के लिए इस मूर्ख समाज ने ये लांछन स्वीकार कर कैसे लिए ?? लेकिन हम वही समाज हैं न - जो हर सुनी सुनाई मान लेते हैं ?लेकिन उस "रावण" के ब्राह्मणत्व और ज्ञान के रक्षकों को राम को बदनाम करना था न ? कैसे करते ? 

जानती हूँ कि आप यह दर्द महसूस कर पा रहे हैं । क्योंकि आपके लिए स्त्री एक शरीर भर नहीं, जीवन का खम्बा है । लेकिन बस, दो दिन हंगामा होगा, फिर न्यूज़ वालों को नया विषय मिल जाएगा और यह भुला दिया जाएगा । हम ब्लोगर्स को भी नया विषय मिल जाएगा जिस पर हम पोस्ट लिखेंगे । हम सब अपने अपने जीवन की आपाधापी में इतने उलझे रहते हैं, किसे समय है किसी अनजान आँख के आंसू याद रखने का ? 

और शायद यह "केस" न भी भुलाया जाए - तो यह एक केस जो चर्चा में आया - इसके लिए एक फ़ास्ट ट्रेक सुनवाई हो जायेगी - क्योंकि सभी अपराधी आखिर गरीब तबके से हैं - तो उनके पास पैसा नहीं है कि वे इस किस्से को दबा सकें । राम जेठमलानी जैसे वकील पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग करते हैं । और खुद वकील ही ऐसे अपराधियों को डिफेंड करते हैं, यदि अपराधी धनवान हो तो । पुलिस कमिश्नर क्या करेगा ? कोई बड़ा आदमी बलात्कारी होता - तो केस दब जाता, कोई बड़ा वकील उसे बचा लेता, न्यूज़ वालों को भी अपना मुआवजा मिल जाता और सब चुप । 

और बाकी "केस" ???? बहुत दुखद है कि यहाँ स्त्री सिर्फ एक शरीर है, सिर्फ एक केस है :( :( 

इस देश में जो न्यूज़ में आ जाए उसका दर्द बड़ा और बाकी सब का गौण है । दूसरी बलात्कार पीड़ीताओं के नाम याद हैं किसी को ? किसी को शाइनी की नौकरानी याद है ? अरुणा शान्बाघ को टिप्पणी करने वाले वंदना शान्बाघ लिखते हैं .... और ये वे "केस" हैं जो चर्चित हुए - जो चर्चित न हुए उनका क्या ? 

हम महिला भ्रूण ह्त्या की बुराई करते हैं, और यह बुराई है भी । लेकिन क्या इस घुटन में सांसें लेती माँ का मन यह न चाहेगा कि जिस संसार में वह जी रही है उसमे उसकी बेटी सांस न ले ??

गिरिजेश जी इतने से ही नहीं रूके। अपनी दूसरी पोस्ट में उन्होने सभी ब्लॉगरों से मार्मिक अपील की है..


आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश,  लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।

इस अपील के संबंध में श्री रवि शंकर श्रीवास्तव जी की टिप्पणी में आया सुझाव बहुत अच्छा है...

कोई बैनर या आर्टवर्क तैयार किया जाए जिसे हर कोई अपने ब्लॉग/फ़ेसबुक वॉल/ ट्विटर इत्यादि पर पोस्ट करे तो और अच्छा. अलबत्ता बैनर के साथ अपने विचार भी जोड़ सकते हैं...

आलसी की बेचैनी कल आई उनकी पोस्ट में भी झलकती है। जिसमें वे स्वयम् एक ड्राफ्ट तैयार कर रहे हैं...


हम गिरिजेश जी को उनके इस विलक्षण आलस्य के लिए साधुवाद देते हैं और आशा करते हैं कि समस्त ब्लॉग जगत का सहयोग उन्हें मिलता रहेगा। बाबा की कृपा उन पर सदा बनी रहे ...

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Dec 16, 2012

हम पढ़ें, लिखें या करें ब्लॉगिंग...!

(1) न दैन्यं न पलायनम्....

यह प्रवीण पाण्डेय जी का ब्लॉग है। जानता हूँ, इससे सभी परिचित हैं। मैं बस भूमिका के लिए बता रहा हूँ। पिछले दिनो इस ब्लॉग पर एक पोस्ट आई.. पढ़ते-पढ़ते लिखना सीखो। शीर्षक पढ़कर तो ऐसा लगा कि यह बच्चों को कोई उपदेश देने वाली पोस्ट है लेकिन पढ़ने के बाद एहसास हुआ कि यह हमारे जैसे बेचैन लोगों की व्यथा-कथा है।  इस पोस्ट के माध्यम से जो विमर्श उठाया गया है वह यह..

प्रश्न बड़ा मौलिक उठता है, कि यदि इतना स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण लिखा जा चुका है तो उसी को पढ़कर उसका आनन्द उठाया जाये, क्यों समय व्यर्थ कर लिखा जाये और औरों का समय व्यर्थ कर पढ़ाया जाये ?

ब्लॉग और कमेंट तो आप लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं लेकिन यहाँ मेरे कमेंट के अलावा कुछ ऐसे कमेंट हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे...

“जो भी जानने योग्य है, वह सब इन पुस्तकों में है, यदि कुछ लिखा जायेगा तो वह इसी ज्ञान के आधार पर ही लिखा जायेगा।” मैं असहमत हूँ इस धारणा से कि पुराना ही बहुत है पढ़ने को तो नया क्या लिखा जाय। यदि कबीर और तुलसी ने ऐसा सोचा होता तो आज हमारे पास क्या वह अनमोल निधि होती जो वे छोड़ गये। तुलसी ने तो बाकायदा घोषित किया था कि वे कुछ नया नहीं कह रहे हैं। कबीर ने इसके उलट यह कह दिया था कि “मसि कागद छुयौ नहीं कलम गही नहिं हाथ”

दर‍असल विद्या अथवा ज्ञान का अर्जन करना अलग बात है और कुछ सर्जन करना बिल्कुल अलग। मनुष्य का मस्तिष्क एक प्रोसेसर का काम तो करता ही है किन्तु इसमें नये विचार और नयी धारणाएँ जन्म भी लेती हैं। दुनिया में साहित्य, संगीत, कला इत्यादि के क्षेत्र में जो बड़े रचनाकार हुए हैं वे एक प्रकार से गिफ़्टेड हैं कि उनके मस्तिष्क में नयी रचना जन्म लेती रहती है। यह एक अद्‍भुत प्रक्रिया है। प्रकृति ने कम या अधिक मात्रा में प्रायः सभी मस्तिष्कों में यह रचनात्मक प्रवृत्ति या शक्ति (potential) दे रखी है। अनुकूल वातावरण पाकर इसका विकास हो जाता है। यहाँ एक अच्छे गुरू की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन अनिवार्य नहीं।



DrKavita Vachaknavee ने लिखा....

जो चार शब्द लिख कर अपने अहम् का पहाड़ खड़ा करने में लग जाते हों, उन्हें अवश्य लिखना बंद कर देना चाहिए(क्योंकि वह अहम् को विसर्जित करने के काम से उलटा कर रहा है) परंतु जो बड़े सरोकारों को लेकर लिख रहा हो उसे और और लिखना चाहिए। इसीलिए सरोकारों की व्यापकता ही किसी भी लेखक का कद और किसी भी लेखक का औचित्य भी प्रमाणित करती है। दूसरे, प्रत्येक के अनुभव और अनुभूति भिन्न होती है... उसकी अभिव्यक्त भी भिन्न ही होगी। इसलिए ऐसा कभी नहीं होगा कि लिखने के विषय चुक गए सो, अब बस !

मैने लिखा...

हम सभी बेचैनी में जीने वाले लोग हैं। वृत्ति और प्रवृत्ति की खाई जितनी चौड़ी होती जाती है आदमी उतना ही बेचैन होता जाता है। हमने बेचैनी अपना ली है तो यह दंश हमे झेलना ही पड़ेगा। जीविका के साथ-साथ जीवन जीना भी पड़ेगा। कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है। कभी कभी घर, कभी शहर रूठ जाता है। हम सुविधानुसार लिखने वाले लोग हैं। जिनको आप पढ़ते हैं उनमे अधिकांश महान लेखक वे हुए जिन्होने सुविधाओं की चिंता नहीं की लिखा और बस लिखा। तुलसी, कबीर, गालिब, निराला..ऐसे ही जाने कितने महान लेखक हुए जो भूख सहते थे यहाँ। घर-परिवार छोड़कर निरंतर सत्य की खोज में, साहित्य साधना में लगे रहे। हम भूख क्या, थोड़ी असुविधा भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। लेकिन एक खुशी है कि जीवन भले मनमर्जी से न जी पाते हों लेकिन जीवन को देखते, महसूस करते और अपने सामर्थ्य के अनुरूप अभिव्यक्त तो करते ही रहते हैं। संसार अच्छा हो इसकी दुआ करते हैं और सुना है, दुआओं का असर होता है । सरस्वती कब, किससे, क्या लिखवा दें! कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए पढ़ते रहें और लिखते रहें...

इस विषय में श्री अनूप शुक्ल जी के विचार भी बड़े काम के हैं....

तो भैया लब्बो-लुआब यह कि अच्छा और धांसू च फ़ांसू लिखने का मोह ब्लागिंग की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। ये साजिश है उन लोगों द्वारा फ़ैलाई हुयी जो ब्लाग का विकास होते देख जलते हैं और बात-बात पर कहते हैं ब्लाग में स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है। इस साजिश से बचने के लिये चौकन्ना रहना होगा। जैसा मन में आये वैसा ठेल दीजिये। लेख लिखें तो ठेल दें, कविता लिखें तो पेल दें। ....पूरा पढ़ने का मन हो तो यहाँ जाना होगा।

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(2) सुनिए मेरी भी.... 

प्रवीण शाह जी अपने इस ब्लॉग में शानदार विज्ञान कथा लिख रहे हैं। चार किश्त लिख चुके हैं। यदि आप विज्ञान कथाओं या जासूसी कथाओं के शौकीन हों तो मूड बदलने के लिए यहाँ जा सकते हैं। इन पोस्टों पर आई टिप्पणियों में एक मजेदार बात यह देखने को मिली कि कथा जितनी रोचक हो रही है, कमेंट उतने कम आ रहे हैं! कमेटस् पर मत जाइये शौकीन हों तो पढ़ आइये। आप पढ़कर रोचक.. से कुछ अधिक नहीं लिख पायेंगे ।

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(3) क्वचिदन्यतोsपि.. 

डा0 अरविंद मिश्र जी के इस ब्लॉग से सभी परिचित हैं। फिलवक्त मिश्र जी सोनभद्र की एक पुनरान्वेषण यात्रा पर हैं। विज्ञान कथा से मुँह मोड़ वैज्ञानिक ढंग से वीर लोरिक और मंजरी की ऐतिहासिक प्रेम कथा से हमे परिचित करा रहे हैं। यह पोस्ट भी काफी रोचक है। पोस्ट का एक अंश देखिये...

....मंजरी की विदाई के बाद डोला मारकुंडी  पहाडी पर पहुँचाने  पर नवविवाहिता मंजरी लोरिक के  आपार बल को एक बार और देखने  के लिए  चुनौती देती है और कहती है कि वे अपने प्रिय हथियार  बिजुलिया खांड (तलवार नुमा हथियार) से एक विशाल  शिलाखंड को एक ही वार में दो भागो में विभक्त कर दें -लोरिक ने ऐसा ही किया और अपनी प्रेम -परीक्षा में पास हो गए -यह खंडित शिला आज उसी अखंड प्रेम की  जीवंत कथा कहती प्रतीत होती है -मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का  सिन्दूर भी लगाया।....

दो भाग में विभक्त पत्थर देखना हो तो आपको वहीं जाना होगा। इस पर आई टिप्पणियाँ बता रही हैं कि इस पोस्ट को लोगों ने खूब पसंद किया है। बस एक बानगी देखिए..


शानदार वर्णन पंडित जी! मेरे लिए तो एकदम नॉस्टैल्जिक है, ननिहाल की बात जो ठहरी! यह सारा इलाका चंद्रकांता संतति के कथानक की पृष्ठभूमि रही है. रिहन्द नदी के बाँध के कैचमेंट एरिया का पूरा जंगल पैदल छान मारा है मैंने. चमत्कृत करता है यह सब!!  लोरिक पत्थर के विशालकाय टुकड़े के खंडित भाग को देखकर साफ़ पता चलता है कि किसी ने सेब को चाकू की धार से दो टुकड़ों में काट दिया हो!! अब आप वहाँ हैं तो ऐसी अद्भुत कहानियाँ और भी मिलेंगी सुनने को!! आभार आपका!!

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(4) 'shashank'.....

चिंतन, विज्ञान कथा, ऐतिहासिक प्रेम कथा मेरा मतलब ऊपर के लिंक के सभी ब्लॉग आप पहले ही पढ़ चुके हों और आपको मेरी यह पोस्ट बोर लग रही हो तो ठहरिए! इतनी जल्दी मत जाइये। मैं आपको ऐसे ब्लॉग से परिचित कराता हूँ जिसे आपने नहीं पढ़ा। शंशांक ..हाँ, यह ब्लॉग हिंदी में ही है लेकिन इसका नाम अंग्रेजी में है।  कु0 स्मिता पाण्डेय के इस ब्लॉग में अभी तक कुल 18 कविताएँ हैं लेकिन टिप्पणियाँ 18 से कम! हिंद युग्म से जुड़े लोग इस लेखिका से परिचित हैं। हिंदयुग्म द्वारा प्रकाशित पहली पुस्तक संभावना डॉट कॉम में भी इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। ब्लॉग शीर्षक ही कविताओं का शीर्षक है। 18 कविताएँ क्रमशः शशांक 1,2,3.....17,18 नाम से प्रकाशित हैं। कविता प्रेमी पाठकों के लिए इनकी कविताएँ अच्छी लगेंगी। इनके दो और ब्लॉग हैं। उनके नाम भी अंग्रेजी में हैं..जिनमें एक ब्लॉग अंग्रेजी का है, दूसरा हिंदी का। इनमे भी टिप्पणियों की संख्या अत्यधिक कम। इनके ब्लॉग को पढ़कर मैने ऐसा महसूस किया कि ये दूसरों के ब्लॉग नहीं पढ़तीं या कमेंट नहीं करतीं। अधिक जानकारी आप ऊपर दिये लिंक पर जाकर स्वयम् कर सकते हैं। मेरा विश्वास है कि इन कविताओं को पढ़कर आपको खुश हो जायेंगे। कविता की एक बानगी देखिए....
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टांक दिए हैं करीने से
मेरे ही लिए किसी ने
आसमान भर तारे,

ओढा कर ठंडी हवा
सुला दिया करता है,

रोज़ सुबह जलाता है
एक उजला सा सूरज,
सहला कर उठाता है
स्नेहिल सी किरणों से,
पैरों तले बिछाता है
ओस की नाज़ुक चादर ,
जाने कितने रंगों से
भरता है फूलों को,
उडेलता है उनमें खुशबू

चुनता है लम्हों को
बुनता है घटना-क्रम
अच्छा-बुरा सब जोड़
सजाता है ज़िन्दगी,

उसी ने गढ़ा है तुम्हें
जैसे मेरे ही लिए,

उसे जानती नहीं मैं

पर महसूस करतीं हूँ

जैसे तुम शशांक ,
तुम्हें भी कहाँ जाना,
बस प्यार किया है,

डरती हूँ जानने से,
कहीं खो न दूं उसे
जिसे तुममें पाती हूँ।

अगर तुम ख्वाब हो
तो जागना नहीं चाहती
अगर मेरा ख्याल हो
तो इसकी डोर थामे
गुम हो जाना चाहती हूँ
तुममें ही कहीं ...
ऐसे की फिर कभी
किसी को न मिलूं
कहीं भी नहीं।
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नोटः सभी शीर्षक में क्लिक करके आप संबंधित ब्लॉग तक पहुँच सकते हैं।

Dec 13, 2012

यह तो चिट्ठा चर्चा हो गया!

(1) My dreams 'n' Expressions....  अनुलता जी ने अपने इस ब्लॉग पर ढलते सूरज का जो शब्द चित्र खींचा है उसकी टक्कर दे पाना अच्छे-अच्छे छायाकारों के बस का नहीं।  इस कविता को पढ़कर मुझसे न रहा गया, लिख ही आया ...

बड़ी प्यारी कविता है। कभी शाम की ऐसी तस्वीर खींच पाया तो इसे ले जाऊँग आपके ब्लॉग से और रख दूँगा तस्वीर के बगल में और यह भी लिख दूँगा.. तस्वीर अच्छी है पर जो बात इस शब्द चित्र में है वो तुझमें कहाँ!

(2) मेरे मन की  अर्चना चाव जी ने अपने इस ब्लॉग में रिश्तों की खूब पड़ताल की है। इसे पढ़कर पाठक इतने भाउक हो जा रहे थे कि कमेंट करना भी उन्हें मुश्किल लग रहा था! मैने लिखा....

यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि नई पीढ़ी रिश्ते निभाना नहीं जानती लेकिन यह तो ध्रुव सत्य है कि पुराने लोग रिश्ते निभाना जानते थे। कैसे-कैसे रिश्ते होते थे ये मीत के रिश्ते! दूध के रिश्तों से भी अधिक मान मिलता था इन्हें। आपने जिस तरह से इन रिश्तों को ढूँढा..सहेजा वह अद्भुत है। अंतिम पंक्तियों में सीख भी दे गईं कि हमारा भी यह दायित्व है कि जाने से पहले हम अपने बच्चों को भी ऐसी दुनियाँ से रूबरू कराते जांय..ऐसा न हो कि बच्चों को ये बातें झूठी और काल्पनिक लगें।

(3) फुरसतिया में अनूप शुक्ल जी का आलेख  वालमार्ट पधार रहे हैं पढ़ा तो इसी तर्ज पर (4) सत्यार्थ मित्र पर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी का करारे कटाक्ष वाला स्वागत गीत पढ़ने को मिला। गीत को पढ़कर आलेख की याद आ गई और सोच ही रहा था कि कैसे दोनों को जोड़ूँ तभी देखा दुन्नो जन पहले से ही जुड़े हुए हैं! फुरसतिया ब्लॉग में स्वागत गीत जाकर चिपक गया है मेरी पसंद बनकर!! मैने 'सिद्धार्थ मित्र' पर लिखा....

          स्वागत गीत है या घातक गीत! दुःख की बात यह है कि कोई आहत नहीं होगा। ढाई इंच की मुस्कान बिखेर कर अच्छा है..अच्छा है कहेंगे और चल देंगे। अब शालीन ढंग से कितनो करारा व्यंग्य लिखा जाय, चिकने घड़े के ऊपर से पानी की तरह फिसल जाता हैं। बाबा नागार्जुन की पालकी अब वालमार्ट के हवाले.. 

.........यह तो ब्लॉग चर्चा हो गई! इन्हें आपने न पढ़ा हो तो पढ़ लीजिए। आपको लगेगा कि मैने आपका समय बर्बाद नहीं किया। 


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Dec 11, 2012

अहंकार

मैने कल अभी एक नया ब्लॉग बनाया आज यह दूसरा!  आप भी कहेंगे.. पगला गया है! लेकिन यह अनायास बन गया । अब बन गया तो बन गया।  हुआ यह कि कल चित्रों का एक ब्लॉग बनाया..चित्रों का आनंद।  कुछ देर बाद संतोष जी का फोन आया.."अरे! सब गड़बड़ा दिये पाण्डेय जी!! आपके ब्लॉग का  URL एड्रेस एकदम बेकार है। photoooooooooo ! यह भी कोई बात हुई? अभी कुछ नहीं बिगड़ा है इसे हटा दो और दूसरा ब्लॉग बना दो.. जिसमें छोटा एड्रेस रखो।" मैने कहा, "जो कमेंट आ चुके हैं, जिन्होंने फॉलो कर लिया है, उनका क्या? वे नाराज नहीं होंगे!" संतोष जी तपाक से बोले, "नहीं भाई, सभी फिर उसमें आ जायेंगे! लिखकर समझा दीजिएगा..कोई नाराज नहीं होगा।" 

मैने झट आव देखा न ताव एक और ब्लॉग बना दिया! एड्रेस भी बढ़िया मिल गया meree photoo! लेकिन जब पुराने वाले को मिटाने चला तब तक 5 लोग उसके फॉलोवर बन चुके थे। उनको मिटाने में मेरी उँगलियाँ कांपने लगीं।  अजीब मुसीबत! संतोष जी तो सो गये अपनी सलाह देकर.."मैं सोने जा रहा हूँ..लेकिन आप मिटा दो..दूसरा बना लो..नहीं तो पछताओगे..इत्ता लम्बा ब्लॉग यूआरएल एड्रेस लेकर कहाँ क्या मुँह दिखाओगे?" मुझे लगा बहुत गड़बड़ घोटाला हो रहा है। वैसे ही बेचैन आत्मा फिर यह नई बेचैनी ओढ़ ली! अब क्या करूँ ? जब मैने ठंडे होकर दिमाग चलाना शुरू किया तो पाया कि बिना ब्लॉग मिटाये आराम से पुराना एड्रेस बदला जा सकता है! प्रयास किया तो बदल गया। लेकिन अब समस्या थी कि इस नये बन गये ब्लॉग का क्या करूँ। मिटाने चला तो फिर नहीं मिटा। मुझे डिलीट करने ही नहीं आया। 

आज सुबह बिहारी बाबू की पोस्ट पढ़ी। उस पर खूब मन लगाकर कमेंट किया। अब अपने कमेंट से मोह होने लगा तो सोचा इसको कहीं सहेज लूँ। कॉपी किया तो पेस्ट करते समय अचानक इस ब्लॉग का खयाल आया। नई पोस्ट पर क्लिक किया और यहीं पेस्ट करके चला गया ऑफिस। अभी शाम को लौटा तो नेट खोलते ही फिर इसी पर निगाह पड़ी! अब इसका क्या करूँ ? तभी विचार कौंधा क्यों न कमेंट का ही एक ब्लॉग बना दिया जाय! इस विचार का आना था कि लीजिए बन गया ब्लॉग। अब जो भी ब्लॉग पढ़ूँगा कमेंट अच्छा कर पाया तो यहाँ चेप दूँगा। मेरी मेहनत भी जाया नहीं होगी और मैने कब क्या लिखा, वह भी सुरक्षित रहेगा। अपना क्या किसी दूसरे ब्लॉगर का कमेंट अच्छा लगा तो उसको लेकर भी पोस्ट बनाई जा सकती है! इसीलिए ब्लॉग का नाम दे दिया..ब्लॉग और ब्लॉगर की टिप्पणी। क्यों? क्या खयाल है आपका? यह मेरी कल शाम वाली बेवकूफी से बड़ी बेवकूफी तो नहीं ! यदि ऐसा है तो मिटाने की विधि लिखियेगा..मैं सहर्ष मिटा दूँगा। जाते-जाते मेरा वह वाला कमेंट तो पढ़ते जाइये जिसको मैने सुऱक्षित रखने के लिए इतनी मेहनत करी.....:)

चला बिहारी ब्लॉगर बनने की आज की पोस्ट पर यह कमेंट किया...

उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ


इस अहंकार को संतों ने बहुभांति समझाया, सावधान किया, पढ़ते हैं, जानते हैं कि यह है! लेकिन क्षण बदला कि हम सब भूलकर पुनः अहंकारी हो जाते हैं। अहंकार कभी संतुष्टि नहीं देता लोभ को ही जन्म देता है। महाशंख के चक्कर में अपना शंख भी गंवा देता है। कही सुना था जब तक हम 'आ' नहीं कहते 'राम' नहीं मिलता, जब तक राम 'आ' नहीं कहते 'आराम' नहीं मिलता। पूरी जिंदगी गुल़जार के नज्म की तरह उसी मोड़ पर खड़े-खड़े बीत जाती है। मजा यह कि जि़ंदगी और ठहरने के बीच चहलकदमी भी हमेशा होती रहती है!.. 

जब मैं चला
पश्चिम की ओर
पूरब ने कहा
आ मेरी ओर

जब मैं चला
पूरब की ओर
पश्चिम ने कहा
आ मेरी ओर

जीवनभर चलता रहा
कभी इधर
कभी उधर
जब चलने की शक्ति न रही
एक किनारे
थककर बैठ गया
मील के पत्थर बताने लगे
मैं तो अभी वहीँ था
जहाँ से चलना शुरू किया था!
.........

यह मील का पत्थर ही हमारे अंहकार को तोड़ पाता है।  हाय! हम उसे जीवन भर नहीं पहचान पाते। यह ठीक वैसे ही है जैसे ओशो जैसी महान आत्मा हमारे जीवन काल में हमारे आस पास रहकर करीब से गुजर गई और हम अपने अंहकार के वशीभूत होकर उनमें कमियाँ ही ढूँढते रहे।

इस पोस्ट ने आज का दिन बना दिया..मुझसे जाने क्या-क्या लिखा दिया!