बलात्कार! बलात्कार! बलात्कार! अखबार, चीखता है बार-बार! लेकिन समूचा ब्लॉग जगत..फेसबुक हिल गया इस बार। जहाँ जाओ वहीं आक्रोश देखने को मिला। पढ़ते-पढ़ते कभी मनुष्य होने पर शक तो कभी शर्मिंदगी का एहसास इस कदर प्रभावी होने लगा कि लगा दिमाग की नसें फट जायेंगी। कितना पढ़ा जाय..कितना कमेंट किया जाय हर ब्लॉग में! अंतर्जाल की दुनियाँ से बाहर निकला तो कहीं कुछ नहीं, विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों की थोड़ी बहुत भीड़-भाड़, जुलूस.. वह भी सीमित दायरे में। कॉलेज, विश्वविद्यालय के सामने थोड़ी बहुत गैदरिंग। टीवी, अखबार बता रहा है दिल्ली की जनता में गहरा आक्रोश है। क्या यह आक्रोश सचमुच इतना है कि राजनेताओं को मतों की चिंता सतायेगी? क्या यह आक्रोश इतना बड़ा है कि देश की आम जनता धर्म, जाति के अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो मतदान करेगी ? काश! ऐसा हो और सरकारें इस दिशा में चिंतित हों। कानून व्यवस्था सुधरे, पूरे देश में फास्ट ट्रैक अदालतें गठित हों। यह सब जरूरी है लेकिन काश! जो भी इससे चिंतित हैं वे अपनी सामाजिक सोच के बारे में भी पुनर्विचार करें! यह एक सामाजिक समस्या है इसका हल हमारे समाज को ही करना है। निःसंदेह मृत्यु का भय, सजा का भय अपराधी को अपराध करने से रोकता है लेकिन समाज यह भी तो तय करे कि नारी का अपमान अपराध है। विवाह में दहेज की मांग करना, जबरी लेना और मजबूरी में देना, दोनो अपराध है। कानून तो है ही लेकिन कौन मानता है? क्या हम सभ्य कहलाने वाले लोग, किसी न किसी बहाने से रोज इस कानून को नहीं तोड़ते? ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.. बेटा ही पैदा हो..सामर्थ्यवान हुए तो पैदा ही नहीं होने देते..न चाहने पर भी पैदा हो गईं तो मन ही मन भाग्य को कोसते हुए झूठा राग अलापते फिरते हैं..लक्ष्मी आई! लक्ष्मी आई! विवाह के लिए जन्म के बाद से ही दहेज जुटाना प्रारंभ कर देते हैं। बार बार इनके कारण ईज्जत खतरे में पड़ जाती है। मजा यह कि बगैर इनके सृष्टि भी नहीं चलती। सृष्टि चलती होती तो? हे भगवान! तुमसे कोई चूक तो नहीं हो गई? नर-नारी दोनो को स्वतंत्र कर देते..जो चाहे जैसे चाहे भोग..संभोग करे.. बच्चे पैदा करे..हे अर्द्ध नारीश्वर! तूने प्राणी मात्र को जिस्म से भी दोगला क्यों नहीं बनाया?
इस विषय में ब्लॉग जगत की हलचल को मैं जितना देख पाया उसमें कुछ पोस्ट ऐसी आईं जिसने दिमाग को हिला कर रख दिया। नारी ब्लॉग से सबसे पहले पूरी घटना से परिचित हुआ। धीरे-धीरे पोस्ट दर पोस्ट..लेकिन सक्रिय और सार्थक भूमिका निभाई भाई गिरिजेश जी ने। खुद को आलसी कहते हैं लेकिन उनकी सक्रियता देख कर ऐसा लगा कि वे खुद को आलसी इसलिए कहते हैं कि जितना लिखना चाहते हैं लिख नहीं पाते। न लिख पाने की बेचैनी से ही वे खुद को आलसी समझते हैं वरना जितना वे लिखते हैं उतना तो हम सोच भी नहीं पाते। जी हाँ, आज मैं बात कर रहा हूँ उनके इस आलेख की...
बलात्कार, धर्म और भय ...इस आलेख को आपने पढ़ा होगा। नहीं पढ़ा है तो कुछ जरूरी है जो आपसे छूट गया। उन्होने रामायण और महाभारत के दृष्टांत देकर यह समझाने का प्रयास किया है कि नारी को लेकर शक्तिशाली पुरूषों की सोच क्या थी? उन्होने आईना दिखाने का प्रयास किया है कि राष्ट्र, धृतराष्ट्र की तरह अंधा है। हम सब में रावण और दुःशासन बैठा है। समाधान के लिए वे आगे लिखते हैं..
..यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?..
इस पोस्ट पर शिल्पा मेहता जी की तीखी प्रतिक्रिया सोचने पर विवश करती है....
हम सब - हम ब्लोगर भी, सभी - इसी व्यवस्था के भाग हैं । नारीवादी बनने वाले भी, मानव वादी बनने वाले भी और पुरुषवादी बनने वाले भी । इस ही ब्लॉग जगत में - जो हमारे समाज का प्रतिनिधि आइना है - (जो बाकी समाज से कहीं बेहतर होना चाहिए क्योंकि यहाँ कम से कम सब पढ़े लिखे तो हैं न ?) मगर इस प्रबुद्ध ब्लॉग जगत में भी यही एटीट्यूड देखती आई हूँ । अत्यंत गूढ़ ग्यानी माने जाने वाले जन भी स्त्रियों को अलग (नीचे) नज़रिए से देखते दिखे । अपने परिवार की स्त्रियों को मान और प्रेम देते हुए भी (जो अपने आप में बहुत महानता का द्योतक है हमारे देश की मानसिकता को देखते हुए - इस देश में तो वह भी नहीं पाया जाता) दूसरी स्त्रियों को - जो जानी पहचानी नहीं हैं, सिर्फ "स्त्री" हैं - उनके लिए एक हिकारत का भाव जब इस पढ़े लिखे "प्रबुद्ध" वर्ग में है - तो बाकी अनपढ़ लोगों से क्या आशा रखी जाए ।
वे आगे लिखती हैं....
युधिष्ठिर और भीष्म के चरित्रों से मुझे सख्त चिढ है , और शायद हर स्त्री को होगी ।
राम - जो अपनी स्त्री के प्रेम में इतना बड़ा युद्ध कर गए, उनके चरित्र पर नारीविरोध के छींटे डालने से भी नहीं चुके हमारे महान ग्रंथकार । उन पर भी सीता की अग्नि परिक्षा और परित्याग जैसे लांछन मढ़ दिए । ग्रंथों में "क्षेपक" की बातें करने वाले यह नहीं मानते कि ये मूर्खतापूर्ण किंवदंतियाँ भी क्षेपक हैं । पता नहीं जंगल में सीता के नाम पर रोते बिलखते तड़पने वाले राम के लिए इस मूर्ख समाज ने ये लांछन स्वीकार कर कैसे लिए ?? लेकिन हम वही समाज हैं न - जो हर सुनी सुनाई मान लेते हैं ?लेकिन उस "रावण" के ब्राह्मणत्व और ज्ञान के रक्षकों को राम को बदनाम करना था न ? कैसे करते ?
जानती हूँ कि आप यह दर्द महसूस कर पा रहे हैं । क्योंकि आपके लिए स्त्री एक शरीर भर नहीं, जीवन का खम्बा है । लेकिन बस, दो दिन हंगामा होगा, फिर न्यूज़ वालों को नया विषय मिल जाएगा और यह भुला दिया जाएगा । हम ब्लोगर्स को भी नया विषय मिल जाएगा जिस पर हम पोस्ट लिखेंगे । हम सब अपने अपने जीवन की आपाधापी में इतने उलझे रहते हैं, किसे समय है किसी अनजान आँख के आंसू याद रखने का ?
और शायद यह "केस" न भी भुलाया जाए - तो यह एक केस जो चर्चा में आया - इसके लिए एक फ़ास्ट ट्रेक सुनवाई हो जायेगी - क्योंकि सभी अपराधी आखिर गरीब तबके से हैं - तो उनके पास पैसा नहीं है कि वे इस किस्से को दबा सकें । राम जेठमलानी जैसे वकील पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग करते हैं । और खुद वकील ही ऐसे अपराधियों को डिफेंड करते हैं, यदि अपराधी धनवान हो तो । पुलिस कमिश्नर क्या करेगा ? कोई बड़ा आदमी बलात्कारी होता - तो केस दब जाता, कोई बड़ा वकील उसे बचा लेता, न्यूज़ वालों को भी अपना मुआवजा मिल जाता और सब चुप ।
और बाकी "केस" ???? बहुत दुखद है कि यहाँ स्त्री सिर्फ एक शरीर है, सिर्फ एक केस है :( :(
इस देश में जो न्यूज़ में आ जाए उसका दर्द बड़ा और बाकी सब का गौण है । दूसरी बलात्कार पीड़ीताओं के नाम याद हैं किसी को ? किसी को शाइनी की नौकरानी याद है ? अरुणा शान्बाघ को टिप्पणी करने वाले वंदना शान्बाघ लिखते हैं .... और ये वे "केस" हैं जो चर्चित हुए - जो चर्चित न हुए उनका क्या ?
हम महिला भ्रूण ह्त्या की बुराई करते हैं, और यह बुराई है भी । लेकिन क्या इस घुटन में सांसें लेती माँ का मन यह न चाहेगा कि जिस संसार में वह जी रही है उसमे उसकी बेटी सांस न ले ??
राम - जो अपनी स्त्री के प्रेम में इतना बड़ा युद्ध कर गए, उनके चरित्र पर नारीविरोध के छींटे डालने से भी नहीं चुके हमारे महान ग्रंथकार । उन पर भी सीता की अग्नि परिक्षा और परित्याग जैसे लांछन मढ़ दिए । ग्रंथों में "क्षेपक" की बातें करने वाले यह नहीं मानते कि ये मूर्खतापूर्ण किंवदंतियाँ भी क्षेपक हैं । पता नहीं जंगल में सीता के नाम पर रोते बिलखते तड़पने वाले राम के लिए इस मूर्ख समाज ने ये लांछन स्वीकार कर कैसे लिए ?? लेकिन हम वही समाज हैं न - जो हर सुनी सुनाई मान लेते हैं ?लेकिन उस "रावण" के ब्राह्मणत्व और ज्ञान के रक्षकों को राम को बदनाम करना था न ? कैसे करते ?
जानती हूँ कि आप यह दर्द महसूस कर पा रहे हैं । क्योंकि आपके लिए स्त्री एक शरीर भर नहीं, जीवन का खम्बा है । लेकिन बस, दो दिन हंगामा होगा, फिर न्यूज़ वालों को नया विषय मिल जाएगा और यह भुला दिया जाएगा । हम ब्लोगर्स को भी नया विषय मिल जाएगा जिस पर हम पोस्ट लिखेंगे । हम सब अपने अपने जीवन की आपाधापी में इतने उलझे रहते हैं, किसे समय है किसी अनजान आँख के आंसू याद रखने का ?
और शायद यह "केस" न भी भुलाया जाए - तो यह एक केस जो चर्चा में आया - इसके लिए एक फ़ास्ट ट्रेक सुनवाई हो जायेगी - क्योंकि सभी अपराधी आखिर गरीब तबके से हैं - तो उनके पास पैसा नहीं है कि वे इस किस्से को दबा सकें । राम जेठमलानी जैसे वकील पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग करते हैं । और खुद वकील ही ऐसे अपराधियों को डिफेंड करते हैं, यदि अपराधी धनवान हो तो । पुलिस कमिश्नर क्या करेगा ? कोई बड़ा आदमी बलात्कारी होता - तो केस दब जाता, कोई बड़ा वकील उसे बचा लेता, न्यूज़ वालों को भी अपना मुआवजा मिल जाता और सब चुप ।
और बाकी "केस" ???? बहुत दुखद है कि यहाँ स्त्री सिर्फ एक शरीर है, सिर्फ एक केस है :( :(
इस देश में जो न्यूज़ में आ जाए उसका दर्द बड़ा और बाकी सब का गौण है । दूसरी बलात्कार पीड़ीताओं के नाम याद हैं किसी को ? किसी को शाइनी की नौकरानी याद है ? अरुणा शान्बाघ को टिप्पणी करने वाले वंदना शान्बाघ लिखते हैं .... और ये वे "केस" हैं जो चर्चित हुए - जो चर्चित न हुए उनका क्या ?
हम महिला भ्रूण ह्त्या की बुराई करते हैं, और यह बुराई है भी । लेकिन क्या इस घुटन में सांसें लेती माँ का मन यह न चाहेगा कि जिस संसार में वह जी रही है उसमे उसकी बेटी सांस न ले ??
गिरिजेश जी इतने से ही नहीं रूके। अपनी दूसरी पोस्ट में उन्होने सभी ब्लॉगरों से मार्मिक अपील की है..
आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश, लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।
इस अपील के संबंध में श्री रवि शंकर श्रीवास्तव जी की टिप्पणी में आया सुझाव बहुत अच्छा है...
कोई बैनर या आर्टवर्क तैयार किया जाए जिसे हर कोई अपने ब्लॉग/फ़ेसबुक वॉल/ ट्विटर इत्यादि पर पोस्ट करे तो और अच्छा. अलबत्ता बैनर के साथ अपने विचार भी जोड़ सकते हैं...
आलसी की बेचैनी कल आई उनकी पोस्ट में भी झलकती है। जिसमें वे स्वयम् एक ड्राफ्ट तैयार कर रहे हैं...
हम गिरिजेश जी को उनके इस विलक्षण आलस्य के लिए साधुवाद देते हैं और आशा करते हैं कि समस्त ब्लॉग जगत का सहयोग उन्हें मिलता रहेगा। बाबा की कृपा उन पर सदा बनी रहे ...
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