महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है...
तथ्यों को तोड़ मरोड़कर राम कथा को नारी वादी दृष्टिकोण से देखने और राम के चरित्र पर उंगली उठाने के कारण यह पोस्ट मुझे अच्छी नहीं लगी। मैने इशारा किया तो मेरे कमेंट को पूर्वाग्रह मान लिया गया। अब आगे बात करना बेकार था इसलिए मैने दुबारा कोई कमेंट नहीं किया। मेरी समझ में यह बात भी नहीं आई कि किसी एक कथा का एक अंश सत्य और दूसरा अंश मिथ्या कैसे हो सकता है! आप यह कह सकते हैं कि यह मेरी अपने इष्ट देव के प्रति अंधभक्ति है लेकिन मुझे तो आज तक संपूर्ण जगत में राम जैसा चरित्रवान दूसरा पुरूष नहीं मिला। राम आज भी पुरूषोत्तम हैं और लगता है सृष्टि के समाप्त होने तक बने रहेंगे। पोस्ट में कई उदाहरण देकर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि महिलाओं का शोषण भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है।
पोस्ट के अंत में लिये गये संकल्प और शुभेच्छा का मैं समर्थन करता हूँ और भगवान राम से प्रार्थना करता हूँ कि हमें हमारे अपराधों के लिए क्षमा करते हुए यह शुभेच्छा पूर्ण करें।
पोस्ट से अच्छी इनपर आई टिप्पणियाँ और प्रवीण शाह जी, अरविंद मिश्रा जी तथा अनूप शुक्ल जी के बीच हुए रोचक संवाद हैं। सभी टिप्पणियाँ आप वहाँ जाकर पढ़ सकते हैं। मैं यहाँ आदरणीय सुज्ञ जी की टिप्पणियों को सहेजना चाहता हूँ जो मुझे अच्छी लगीं। विचारों में भिन्नता है और सभी को अपने विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता है इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी सहेजी टिप्पणियाँ सभी को अच्छी ना लगें।
ऐसे तो सबकुछ शोषण ही साबित कर लिया जाएगा. जब सहजीवन होगा साथ साथ जीना होगा तो ऐसी तो हजारों घटनाएँ घटती चली जाएगी. बसँत में कोई फूल भी पहले पुरूष के बाग में खिल गया तो यह नारी का शोषण होगा. शोषण न हुआ जैसे साँस लेने का नाम ही शोषण हो गया. सीता महान थी,सत्वशाली थी,सती (सत्य पर अटल के अर्थ मेँ) थी,वह देवी ही थी,दिव्यता के सारे गुण उनमें थे. जब उन्होनें दबी जुबा से भी शोषण की शिकायत नहीं की तो उनके आदर्श समर्पण को शोषण नाम देने वाले हम होते ही कौन है? सीता ने अपने समान ही सक्षम राम का वरण किया यह स्वतँत्र निर्णय था. वन मेँ जाने का निर्णय भी मिल बैठ कर सीता का स्वेच्छिक निर्णय था,अपने निर्णय पर ही प्रतिपक्ष से सवाल कैसे हो सकता था? आज के युग में निजी स्वार्थ, निजी स्वतंत्रता, स्वहित आदर्श स्थिति हो सकती है पर उस युग में मन वचन और काया से परस्पर पूर्ण समर्पण आदर्श स्थिति ही नहीं आदर्श व्यवस्था थी.
सबसे पहले शोषण के मायने अर्थ और काल अनुसार उसके भावों का निर्धारण हो। फिर हम आदिकालिन शोषण स्थापित करें। आज हमें जो वस्तु पसंद नहीं तो उस आजकी पसंद को भूतकाल पर कैसे थोप सकते है? सभी कुछ काल, स्वभाव, परिस्थिति और नियति अनुसार बदलता रहता है हम बीत चुके या रीत चुके काल के आदर्श बदल ही नहीं सकते, बदलने की छोडो, हम तो अपनी स्वयं की मानसिकता को किनारे रखकर विश्लेषण तक कर पाने के योग्य नहीं है। हमारे लिए तो आज यह सोचना दुष्कर है कि काल विशेष में कौनसा व्यवहार शोषण माना जाय और कौन सा नहीं? इसलिए अनादिकाल की व्याख्या करना और मुक्त मन से सदा-सर्वदा के लिए शोषण आरोपित कर देना वस्तुतः अनधिकार चेष्टा है।
आज की तरह पहले देवीय गुण त्यक्त नहीं थे, देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था। क्या स्त्री क्या पुरूष सभी देवीय गुणवान बनने और कहलवाने को तत्पर रहते थे। आज की तरह देवी कहलवाना बुरा या निंदा आलोचना का कारण नहीं बना करता था इसलिए लोग अपनाते थे, लालायित रहते थे। त्यागते नहीं थे। सीता का अन्तिम प्रयाण आत्महत्या नहीं, नश्वर संसार से मुक्ति जीवन प्रयोजन पूर्णता के निर्णय रूप समाधी या निर्वाण था। बस इसी तरह शब्द पर सवार होकर संदेह चले आते है। राम कथा के विभिन्न स्वरूप प्राप्त होते है, परफेक्ट घटना या असल सम्वाद क्या थे निश्चय से कोई नहीं कह सकता। फिर भी गलत या सही को नापने का एक मोटा तरीका है हमारे पास। इतनी भिन्न भिन्न कथाओं में इतना विशाल काल बीत जाने के बाद भी राम मर्यादापुरूषोत्तम स्वीकार किए जाते है और सीता सर्वश्रेष्ट सती। अवगुणवाद या निन्दा का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
कष्ट महसुस हो तो कष्ट बनता है और कष्ट लेकर भी किसी को सुखी महसुस करने की मानसिकता देवीय गुण बन जाती है। जैसे अपनो के प्रति राग मोह ममता देवीय गुण है, खट कर, कष्ट उठाकर, भी ममता प्रदान की जाती है क्या इसे कष्ट उठाना कहें ममता का लाभ प्राप्त करने वाले को शोषक कहें? पता नहीं यह सती शब्द से जलाने की कुप्रथा कब आई किन्तु निश्चित ही यह आदिकालीन नहीं है। रामायण काल में तो सत्यव्रत या सती का अर्थ सत्य के प्रति निष्ठावान के लिए हुआ करता था।
मै एक उस भूतकाल के भावो को समझने के लिए भविष्यकालिन काल्पनिक उदाहरण से समझाता हूँ......भविष्य मेँ प्रेम करना और विवाह करना भी शोषण माना जाएगा क्योकि उस समय की नारियोँ पूरे यक़िन से कह सकेगी कि पुरूष,प्रेम और विवाह मात्र मातृत्व धारण करवाने के लिए ही करते है और इस प्रकार मातृत्व धारण का भयँकर कष्ट मात्र स्त्री को भोगना होता है.ऐसे माहोल में सहज आकर्षण भी हर दृष्टि मेँ कुटिल अत्याचार ही नजर आएगा. और 'मातृत्व' का महिमा-वचन 'देवी' बनाने जैसी चाल के रूप मेँ ही जाना समझा जाएगा. अतीत के प्रश्नों को समझने से पहले युगोँ युगोँ के अंतराल और संस्कृति के विकास क्रम को समझ लेना आवश्यक है.फिर से दोहराता हूँ....रामायण काल बहुत ही प्राचीन है.
मुझे यह पता नहीं चलता कि राम और राम से भक्ति ही कटघरे में क्यों है? क्या इस त्रासदी का अन्तिम कारण आपने राम और राम भक्ति में निश्चित ही कर लिया है। इसका एक संकेत यह भी होता है कि दूसरे सारे कारण है ही नहीं। एक मात्र हमारी 'राम संस्कृति' ही कारण है। यह भी ठीक ऐसा ही आरोप है जैसा संस्कारों में विकार का दोष मात्र पश्चिमि संस्कृति को दिया जा रहा था। कहा जा रहा था जिसकी जैसी नियत होती है उसे पश्चिमि संस्कृति वैसी ही नजर आती है। आज भारतीय संस्कृति पर अगुली उठाते हुए दृष्टि और दृष्टिकोण बदल क्यों जाता है?
गदर फिल्म का विख्यात सम्वाद है.... कहो पाकिस्तान जिंदा बाद!! -पाकिस्तान जिंदाबाद!!.... अब कहो हिंदुस्तान मुर्दाबाद..... जब तक तुम हिंदुस्तान मुर्दाबाद नहीं कहते हम कैसे मान लें तुम सच्चे मुसलमान हो गए हो?....कुछ ऐसी ही फिलिंग आ रही है....पाश्चात्य संस्कृति पर आरोप लगाना छोडो!!.....हमने कहा हम गलत थे चलो छोड दिया.....अब अपनी सँस्कृति की निंदा भी करो....हमने कहा यह हमसे नहीं होगा....यदि अपनी सँस्कृति की निंदा नहीं करोगे तो कैसे मान लें कि तुम प्रगतिशील हो गए हो!!! :) :):(
हम धर्म की क्या रक्षा करेंगे, वस्तुतः धर्म हमारी रक्षा करता है. हिंदु धर्म मेँ फ़तवा जारी करना शुभ या सद्कर्म नहीँ है, न फतवे की हमारी हैसियत बनती है.आप निश्चिंत होकर किसी भी के विरुद्ध खड़ी रह सकती है.आपके विचार आपके अपने है वे विचार जब तक आप तक ही सीमित हो भला उसका किसी से क्या लेनादेना हो सकता है? लेकिन वे विचार अगर सार्वजनिक व्यक्त होकर दूसरों को प्रभावित करने की सम्भावनाएँ खडी करते है,महापुरूषोँ के चरित्र मेँ भ्रांतियाँ पैदा कर मान और आस्था घटाने में सहयोग करते है तो विनम्रता से सँकेत करना ही पडता है जिसे आप भावनात्मक शोषण कहती है.जानता हूँ हिंदु धर्म के पास आत्मघात की हद तक उदारता है आराध्यों का इतना चरित्र हनन स्वीकार कर लेते है कि वे आराध्य ही ना रहे. फिर न रहेगा बांस ना बजेगी बांसूरी. इसलिए आप भले स्वतंत्रता से आराध्यों का चरित्र हनन सोचें पर उस अपनी सोच को सार्वजनिक थोपने का कोई अधिकार नहीँ है. हमारा मात्र इतना सा प्रतिकार है बस. जैसे आप मानती है कि आप सच के साथ है, वैसे ही सभी अन्य भी स्वयं को सच के साथ ही खडा पाते है,राम और सीता के साथ खडा पाते है किंतु स्वयं राम और सीता का सम्मान व अस्तित्व किस में है नहीं जानते.
सामाजिक मान्यताओं को आप पुरानी भारतीय संस्कृति नहीं कह सकते। यदि उछ्रंखलता व असंयम के खिलाफ अनुशासन या संयम के लिए प्राच्य भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है तो इसमें बुरा क्या है? बुराई तो उन 'सामाजिक मान्यताओं' रूढ परम्पराओं, कुरीतियों में है जिसका ढोल पीट कर उन्नति और विकास को बाधित किया जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि करे कोई और भरे वह जिससे हमें अरूचि हो? अर्थात् असंगत रूढियों, गलत परम्पराओं और कुरीतियों के ढंढेरे की सजा निर्दोष प्राच्य संस्कृतियाँ क्यों भुगते? महज इसलिए कि हमें दोनो में अन्तर करने की योग्यता नहीं है इसलिए………
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