Mar 6, 2014

आयुर्वेद और ब्लॉगरों की माथा पच्ची


आज बात करते हैं एक ही ब्लॉग  न दैन्यं न पलायनम् में प्रकाशित आयुर्वेद श्रृंखला की। वाग्भट्ट की पुस्तक के आधार पर आयुर्वेद के ज्ञान को हम सब से साझा किया है श्री प्रवीण पाण्डेय जी ने।  न ब्लॉग परिचय का मोहताज है न ब्लॉगर। यह श्रृंखला अत्यंत रोचक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है। इसमें दी गई जानकारी हमारी भरतीय संस्कृति में छुपा ज्ञान का वह प्रचुर भंडार है जिससे आप अब जितना ले पायें उतनी आपकी किस्मत। पढ़ा है तो ठीक लेकिन यदि नहीं पढ़ा है तो पढ़ने मात्र से भी कुछ न कुछ लाभ तो होगा ही।  तो अब सीधे आते हैं इस ब्लॉग में प्रकाशित अब तक की बेहतरीन पोस्टों की ओर जिसका उल्लेख पोस्टवार लिंक सहित निम्नांकित है-



चरक, सुश्रुत, निघंटु और वाग्भट्ट आयुर्वेद के चार स्तम्भ हैं। चरक के वृहद और पाण्डित्यपूर्ण कार्य को उनके शिष्य वाग्भट्ट ने प्रायोगिक आधार देकर स्थापित किया। वर्षों के अध्ययन के पश्चात जो निष्कर्ष आये, वही हमारी संस्कृति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बस गये। कई पीढ़ियों को तो ज्ञात ही नहीं कि प्राचीन काल से पालन करते आ रहे कई नियमों का आधार वाग्भट्ट के सूत्र ही हैं। दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्या, त्रिदोष आदि के सिद्धान्त सरल नियमों के रूप में हमारे समाज में रच बस गये हैं। 



आयुर्वेद का आधार स्वयं को, प्रकृति को और दोनों के परस्पर संबंधों को समझने से प्रारम्भ होता है। प्रकृति के सिद्धान्त न केवल दर्शन का विषय हैं, वरन स्वास्थ्य के प्राथमिक सूत्र भी हैं। हो भी क्यों न, शरीर भी तो प्रकृति का ही तो अंग है। भोजनचर्या, दिनचर्या और ऋतुचर्या आयुर्वेद की समग्रता और व्यापकता को स्थापित करते हैं। आप भी ध्यान दें, स्वास्थ्य संबंधी सलाहें जो हमें अपने बुज़ुर्गों से मिली है, उसका कोई न कोई संंपर्कसूत्र हमें वाग्भट्ट के कार्य में मिल जायेंगे।



टिप्पणीः-

इस पोस्ट पर सतीश सक्सेना जी के प्रश्न से पुस्तक मिलने का स्रोत पता चला..http://www.rajivdixit.com/?p=245
८ लेक्चर हैं, वाग्भट्ट के सूत्रों पर

http://rajivdixitbooks.blogspot.in

४ पुस्तकें हैं, पीडीएफ फॉर्मेट में

केवल राम जी ने लिखा- 

"पत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले स्वास्थ्य संबंधी अध्ययन अब बेमानी लगते हैं, किसी कम्पनी विशेष 

के स्वार्थ से प्रेरित लगते हैं, किसी कारण विशेष से प्रायोजित लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो क्यों एक 

ही विषय के बारे में परस्पर विरोधाभासी अध्ययन प्रकाशित होते।"

प्रवीण जी ने P.N. Subramanian के केरल अनुभव के बारे में अपने कमेंट में बड़ी अच्छी बात लिखी है-

दु:ख तो इस बात का ही है कि लोग आयुर्वेद को केवल एक चिकित्सा पद्धति मानते हैं और उस समय याद 

करते हैं जो रोग चढ़ चुका होता है। जीवनशैली में आयुर्वेद को समझने और अपनाने के लाभ अद्वितीय, 

अद्भुत हैं। केरल में भी चिकित्सीय पक्ष अधिक प्रचलित है, जीवनशैली में ढालने की बातें बहुत कम लोग 

बताते हैं।



यह पोस्ट प्रकृति चक्र के दार्शनिक पहलू को खूबसूरती से उभारता है। कुछ अंश देखिए...

शरीर माटी का बना है, यह कोई अतिश्योक्ति नहीं। जितने भी तत्व शरीर में होते हैं, वे सारे के सारे तत्व माटी में भी मिल जाते हैं। यही कारण है कि शरीर माटी से ही पोषित होता है, उसी से ही जीवन पाता है और अन्ततः मृत्यु के पश्चात माटी में ही मिल जाता है। आश्चर्य नहीं करना चाहिये कि माटी हमारे लिये कितनी महत्वपूर्ण हैं।

..माटी के विशेष तत्व अन्न के दाने में से होते हुये मेरे शरीर में पहुँचते हैं और मुझे जीवित रखते हैं...

..माटी से तत्वों को एकत्र करने का कार्य पौधे करते हैं। इन पौधों को कम्प्यूटर की भाषा में कहा जाये तो ये एक विशेष प्रकार के सॉफ़्टवेयर हैं जो माटी से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालते हैं। ...


..भोजन पचने के बाद जो शेष बचता है वह पुनः प्रकृति में मिल जाता है। जब तक शरीर जीवित रहता है, प्रकृति से पोषण पाता रहता है, अन्त में शरीर माटी में मिल जाता है।..


...प्रकृति के इस चक्र में हम एक याचक के रूप में खड़े हैं, न जाने क्या सोचकर हम स्वयं को नियन्त्रक मान बैठते हैं।..


टिप्पणीः-


इस पोस्ट को पढ़कर Anupama Tripathi इतनी उत्साहित हुईँ कि उन्होंने एक सुंदर संस्मरण ही लिख दिया...  


पापा ने गिलोय के पौधे की फरमाइश की और श्रीमान जी ने मंगवाया |बहुत शौक से हमने उसे बगीचे में लगाया |उसकी बेल होती है ,फलते फलते पीछे टेलेफोन के खंबे पर चढ़ गई | |माली एक नया नया लगाया था |रसोई में कुछ बना रही थी सो माली को कहा यहाँ बगीचे में सफाई कर दो |उसने ऐसी सफाई करी कि वो बेल ही साफ हो गई |शाम को जब पापा बाहर आए देखा उनकी प्रिय बेल पूरी साफ हो चुकी है |गुस्से से लाल मुँह ||बस इतना ही बोले ...देखो तुम्हारे माली ने क्या किया ...!!श्रीमान जी इतना ही बोले ....तुम्हें ध्यान रखना चाहिए था .....!!अब मैं शांत खड़ी रही |मुँह से इतना ही निकाला ''हे ईश्वर ये क्या हुआ ...!!" अब ऊपर देखा तो खंबे पर पूरा गुच्छा अभी भी लटक रहा था |आते जाते हम सब उसी गुच्छे को देखते और उसके पुनर्जीवित हो जाने की बात सोचते ||धीरे धीरे दैनिक दिनचर्या में उलझे ये भी भूल गए |कुछ समय बाद एक दिन पापा पीछे जब आए तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं |उस बेल ने अपनी जड़ें माटी तक फेंक दीं थीं |और पुनः लहलाहा रही थी ....!! 



तन्त्र जितना बड़ा होता जाता है, अपने अस्तित्व के लिये संतुलन पर निर्भर होता जाता है। संतुलन का प्रमाण प्रकृति में स्थित चक्रीयता से मिल जाता है। ऋतुयें विधिवत आती हैं, ग्रहों के बीच की दूरियाँ सधी हैं, दिन के बात रात की निश्चितता रहती है, एक मध्य स्थिति है जिसके इधर उधर प्रकृति जाती तो है, पर लौट कर अपनी संतुलित स्थिति में लौट आती है। धारण करने वाले सारे अवयव संतुलन के प्रतिमान होते हैं। बुद्ध का मध्यमार्ग विचारों और व्यवहारों के अभूतपूर्व संतुलन का दर्शन है। बुज़ुर्गों का संतुलित व्यवहार परिवारों को साधता है। संतुलन का दर्शन व्यापक है, यह प्रकृति का सिद्धान्त है और शरीर पर भी विधिवत लागू होता है।


इन तीन सिद्धान्तों को एक शब्द से परिभाषित किया जाये तो उसे अनुशासन कहा जा सकता है। बहुधा लोग एक अनुशासित जीवन जीने लगते हैं, उसमें प्रकृति के तीनों तत्व संतुष्ट बने रहते हैं, शरीर स्वस्थ बना रहता है। कहें तो प्रकृति के अनुशासन में रमे लोग प्रकृतिलय हो जाते हैं। हम अनुशासन के नियन्त्रण में यदि नहीं भी बंधें रहना चाहें तो भी इन तीन सिद्धान्तों को अलग अलग स्तर पर सम्मान अवश्य करते रहें। हम इन सिद्धान्तों का जितना सम्मान करेंगे, स्वयं को प्रकृति को उतने ही निकट पायेंगे, प्रकृति से शरीर का उतना ही कम घर्षण होगा, हम उतने ही स्वस्थ और ऊर्जान्वित रहेंगे।

टिप्पणी-

इस पोस्ट पर मनु त्यागी जी ने कमेंट किया-

इस विषय को समझना कठिन ही है पर यदि आप अगली पोस्ट में वात पित्त और कफ के पक्ष को भी 

थोडा सरल करें तो बढिया रहेगा और आप ऐसा कर सकते हैं ये उम्मीद है।


इस कमेंट के उत्तर में प्रवीण पाण्डेय जी ने अगली पोस्ट वात, पित्त और कफ पर ही लिख डाली।


(4) कफ, वात, पित्त :- 

जीवन जीना प्रकृति चक्र का अंग होना है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलन प्रिय है। जिस अनुपात में यह संतुलन शरीर में रहता है, वह हमारे शरीर की प्रकृति है। कुछ में कफ, कुछ में पित्त, कुछ में वायु या कुछ में इनके भिन्न अनुपात प्रबल होते हैं। यह संतुलित स्थिति हमारा शारीरिक ढाँचा, मानसिक स्थिरता और बौद्धिक व्यवहार निर्धारित करती है। यही संतुलन स्वास्थ्य परिभाषित करता है। प्रकृति से हमारे सतत पारस्परिक संबंधों में ये तीन तत्व घटते बढ़ते रहते हैं। किसी भी एक तत्व का शरीर में अधिक होना ही प्रकृति से हमारे घर्षण का कारण है। यही घर्षण रोग का कारण है। जब तक जीवनशैली या औषधियों से संतुलन की स्थिति में वापस पहुँचकर घर्षण कम किया जा सकता है, रोग साध्य रहता है। जब यह असंतुलन असाध्य हो जाता है, शरीर प्रकृति चक्र से बाहर आ जाता है, प्राण शरीर त्याग देते हैं।

इस पोस्ट के किस अंश को यहाँ कट पेस्ट करूँ किसे छोड़ दूँ! ब्लॉग में जाकर पूरी पोस्ट पढ़ने में ही आनंद है।
इस पोस्ट पर कमेंट करते हुए श्री विरेन्द्र कुमार शर्मा जी लिखते  हैं...

अष्टांग हृदयम को मथ के आपने मख्खन परोस दिया है!


जल सभी रसों का उत्पादक है, पाचन प्रक्रिया में भोजन से जो पोषक तत्व सोखे जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं, रसों से ही रक्त आदि का निर्माण होता है। जल वैसे तो जिसमें मिलाकर पिया जाता है, उसी के गुण ले लेता है, पर इसके अपने ६ गुण भी हैं, शीत, शुचि, शिव, मृष्ट, विमल, लघु। धरती पर आया जल वर्षा का ही होता है, समुद्र से वाष्पित जल अन्य जल स्रोतों से वाष्पित जल की तुलना में अधिक क्षारीय होता है। वर्षाकाल का प्रथम जल और अन्य ऋतु में बरसा जल नहीं पीना चाहिये। बहता जल पीने योग्य होता है, पहाड़ों और पत्थरों से गिरने से जल की अशुद्धियाँ बहुत कम हो जाती हैं। स्थिर जल के स्रोतों में वही जल श्रेष्ठ होता है जिसे सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श मिलता रहे। यदि जल मधुर है तो त्रिदोषशामक, लघु और पथ्य होता है। क्षारीय है तो कफवात शामक, पर पित्त को बढ़ाता है। कषाय हो तो कफपित्त शामक, पर वात को बढ़ाता है।


इस पोस्ट को पढ़कर आपके आँखों की कालिमा जा सकती है। इसमें इसके भी उपाय हैं। लार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्रवीण जी लिखते हैं... (मैने पान घुलाकर यह पढ़ा तो मुझे कैसा लगा होगा आप सोच सकते हैं)...जो लोग पान मसाला, गुटका, तम्बाकू आदि खाकर थूकते रहते हैं, उनसे बढ़ा अभागा कोई नहीं।


इस पोस्ट पर डॉ श्यामजी और श्री कालीपद प्रसाद जी ने अपना पक्ष रखते हुए कुछ आपत्तियाँ लिखी हैं जैसे...वाष्पित जल न क्षारीय होता है न अम्लीय ..यह वैज्ञानिक तथ्य है ।  


सिद्धान्त बढ़ा सीधा है, खाना तभी खाना चाहिये जब जठराग्नि तीव्र हो, या जमकर भूख लगे। सुबह का समय कफ का होता है, जैसे जैसे सूर्य चढ़ता है, जठराग्नि बढ़ती है। वाग्भट्ट के अनुसार सूर्योदय के ढाई घंटे के बाद जठराग्नि सर्वाधिक होती है, भोजन उसी के आसपास कर लेना चाहिये। भोजन करने के डेढ़ घंटे बाद तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। अधिकाधिक भोजन उसी समय कर लेना चाहिये। ...
...दोपहर में यदि कुछ खाना हो तो वह सुबह का दो तिहाई और रात को भोजन सुबह का एक तिहाई हो। जिस तरह दिया बुझने के पहले जोर से भड़कता है, सूर्य डूबने के पहले जठराग्नि भी भड़कती है। रात का भोजन सूर्योदय के पहले ही कर लेना अच्छा, उसके अच्छे से पचने की संभावना तब सर्वाधिक है। ...सूर्यास्त के बाद कुछ ग्रहण करना पूर्णतया निषेध नहीं है, दूध सोने के पहले ले सकते हैं, वह अच्छी नींद और पाचन में सहायक भी है। 


इस पोस्ट के कुछ अंश देखिए जिन्हें मैने बीच-बीच से छांट-छांट कर लगाया है.... 

वाग्भट्ट का पहला सिद्धान्त है कि जिस भोजन को सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श न मिले, वह भोजन नहीं, विष है जो धीरे धीरे हमें ही खा जायेगा। 

वाग्भट्ट का दूसरा सिद्धान्त है कि जिस अन्न को खेत में पकने में अधिक समय लगता है, उसे पकने में उतना ही अधिक समय लगेगा। यहाँ पर गति का सिद्धान्त दिखता है।

वाग्भट्ट का तीसरा सिद्धान्त है कि भोजन बनने के ४८ मिनट के अन्दर उसको खा लेना चाहिये। जैसे जैसे देर होती है, उसकी पौष्टिकता कम होती जाती है। २४ घंटे के बाद भोजन बासी हो जाता है और पशुओं के खिलाने के योग्य भी नहीं रहता है।

वाग्भट्ट का चौथा सिद्धान्त है कि किसी भी कार्य में यदि अधिक गति से किया जाये तो वह वात उत्पन्न करता है।

प्रेशर कुकर पहले दो सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। फ्रिज और ओवेन, पहले और तीसरे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। मिक्सी आदि यन्त्र चौथे नियम को तोड़ते हैं। 

हमारी रसोई में चलती परिपाटियाँ आयुर्वेद के सूत्रों का अमृत निचोड़ होता था, वह भी हर छोटी बड़ी प्रक्रिया में सरलता से सहेजा हुआ। चक्की, सिलबट्टा आदि यन्त्रों से न केवल हमारे स्वाद और स्वास्थ्य की रक्षा होती थी, वरन घर में रहने वाली महिलाओं का समुचित व्यायाम भी हो जाता था। आधुनिक यन्त्रों ने स्वाद, स्वास्थ्य और श्रम के सुन्दर संतुलन को नष्ट कर दिया है, हमें भी मशीन बनाकर रख दिया है। अब न हम पौष्टिक खा पा रहे हैं, न स्वादिष्ट खा पा रहे हैं, न स्वस्थ हैं और न ही सुगढ़।

आगे पोस्ट में प्रवीण जी माटी की हांडी पर पके भोजन की बात लिखते हैं। पाठक इसे पढ़कर घबराये से लगते
हैं। कमेंट देखिये.....

पर ये बातें कैसे हो पाएंगी प्रवीण जी। उस युग को, जिसकी आप बात कर रहे हैं, हमने और हमारे पूर्वजों ने देखा था। आज के बच्‍चे को अगर केवल उसके बारे में पढ़ाया या बताया जाएगा तो उससे उनमें उस आदि सुदृढ़ व्‍यवस्‍था के प्रति वो लगाव नहीं पनपेगा, जो हम उसके प्रति उसे देख व अनुभव कर लेने के बाद महसूस करते हैं। और हम नहीं रहेंगे तो आगे इस पर कोई बात करने को भी राजी नहीं होगा, इसे अपनाना तो दूर की बात। और हम आज इसे अपना भी कैसे सकते हैं। गांव में जंगलों से लकड़ी काटने पर वन-संरक्षण के नाम पर बेतुकी पाबन्‍दी जो है। लकड़ी नहीं जलेगी तो चूल्‍हा कैसे जलेगा। हांडी की दाल चूल्‍हे में ही बनकर स्‍वादिष्‍ट होती थी। बहुत सी बातें हैं, जिन्‍हें लागू करने के लिए हमें सब त्‍याग कर हम जैसे बहुत से समवयस्‍कों को सब कुछ शहरी वस्‍तुओं और व्‍यवस्‍थाओं को छोड़कर वापस गांव में जाकर बसना होगा। तब ही आयुर्वेद के सिद्धांत का सही और उचित पालन हो सकता है। शहर में रहकर यकीन जानिए शहरी जीवन जीना और पुरातन व्‍यवस्‍था को अपनाने की हसरत पालने के अलावा कुछ नहीं होगा। यह अपने मन को तसल्‍ली देने के अलावा कुछ नहीं होगा। कुछ हो सकता है तो केवल अपने-अपने गांव जाकर ही कुछ हो सकता है। एक पीढ़ी को तो इसके लिए त्‍याग करना ही होगा। और वह पीढ़ी आप-हमारी ही हो सकती है। अन्‍यथा आगे की पीढ़ी को अपने सामने वो पुरातन व्‍यवस्‍था दिखेगी ही नहीं तो उसे अपनाने की बात तो छोड़ ही दीजिए।

बात ओ आपकी सही है और मैं इस से सहमत भी हूँ। मगर वर्तमान हालात में जहां इंसान के पास सांस लेने के लिए भी फुर्सत नहीं है। वहाँ मिट्टी के बर्तन में दाल बनाने या हाथों की चक्की से आटा पीसने की ज़हमत कौन उठाएगा। पहले सनयुंक्त परिवार होते थे जिनमें घर के सदस्यों में काम बंट जाया करते थे। मगर आज एकल परिवार होते है जिनमें महज़ 3 या चार प्राणियों के लिए इतना कष्ट शायद ही कोई उठाने को राजी होगा। क्यूंकि आजकल तो पति पत्नी दोनों ही कामकाजी होते है फिर यह सब कैसे संभव हो सकता है।

----सही कहा बडोला जी... सब कुछ सत्य है.....पर पीछे लौटना असंभव ...सब कुछ समय पर आधारित है ...परन्तु कल्पना में आनंद तो लिया ही जा सकता है.....
---- पहले हम गुफा में पेड़ों , जंगलों में रहते थे ..न कोइ कानूनी अड़चन न बंधन...अंतहीन स्वतन्त्रता.....अब इतने कानून ..बंधन कि मज़े से चलना भी दूभर ...सड़क पर ऐसे चलो ऐसे मत चलो....दो डंडों पर शिकार को लटका कर नीचे आग जलाकर मज़े से रोस्टेड खाते थे ..... जब उन्नत हुए , नगर बसाये और नौकर-चाकर से श्रम कम होगये, तवे की रोटी खाने लगे ....और उन्नत हुए सब विशेषज्ञ आगये और तमाम ताम-झाम के साथ वैज्ञानिक दृष्टियाँ ...तमाम रोगों से निजात ....पर नए नए रोगों का जन्म ..
--- अच्छा होगा हम पुनः जंगल में ही जा बसें ....परन्तु नगर की सुरक्षा-सुविधाएं...पिज्जा-बर्गर..समोसा-दोसालस्सी, चाय च्च च्च ...???????..कहीं भी कभी भी चैन नहीं ...
----बस एक ही तथ्य सच है कि स्वदेशी पर चलें ...चाहे मध्ययुगीन हो या आधुनिक युग की बात....
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नोट:- यह अब तक की प्रकाशित श्रृंखला से है, भविष्य में इस संबंध में जो भी पोस्टें, कमेंट आयेंगी उनको एक ही स्थान पर संग्रहित करने का मन है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये। :)


Jan 20, 2013

हे राम!


महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है... 


तथ्यों को तोड़ मरोड़कर राम कथा को नारी वादी दृष्टिकोण से देखने और राम के चरित्र पर उंगली उठाने के कारण यह पोस्ट मुझे अच्छी नहीं लगी। मैने इशारा किया तो मेरे कमेंट को पूर्वाग्रह मान लिया गया। अब आगे बात करना बेकार था इसलिए मैने दुबारा कोई कमेंट नहीं किया। मेरी समझ में यह बात भी नहीं आई कि किसी एक कथा का एक अंश सत्य और दूसरा अंश मिथ्या कैसे हो सकता है! आप यह कह सकते हैं कि यह मेरी अपने इष्ट देव के प्रति अंधभक्ति है लेकिन मुझे तो आज तक संपूर्ण जगत में राम जैसा चरित्रवान दूसरा पुरूष नहीं मिला। राम आज भी पुरूषोत्तम हैं और लगता है सृष्टि के समाप्त होने तक बने रहेंगे। पोस्ट में कई उदाहरण देकर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि महिलाओं का शोषण भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है। 

पोस्ट के अंत में लिये गये संकल्प और शुभेच्छा का मैं समर्थन करता हूँ और भगवान राम से प्रार्थना करता हूँ कि हमें हमारे अपराधों के लिए क्षमा करते हुए यह शुभेच्छा पूर्ण करें।

पोस्ट से अच्छी इनपर आई टिप्पणियाँ और प्रवीण शाह जी, अरविंद मिश्रा जी तथा अनूप शुक्ल जी के बीच हुए रोचक संवाद हैं। सभी टिप्पणियाँ आप वहाँ जाकर पढ़ सकते हैं। मैं यहाँ आदरणीय सुज्ञ जी की टिप्पणियों को सहेजना चाहता हूँ जो मुझे अच्छी लगीं। विचारों में भिन्नता है और सभी को अपने विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता है इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी सहेजी टिप्पणियाँ सभी को अच्छी ना लगें। 

ऐसे तो सबकुछ शोषण ही साबित कर लिया जाएगा. जब सहजीवन होगा साथ साथ जीना होगा तो ऐसी तो हजारों घटनाएँ घटती चली जाएगी. बसँत में कोई फूल भी पहले पुरूष के बाग में खिल गया तो यह नारी का शोषण होगा. शोषण न हुआ जैसे साँस लेने का नाम ही शोषण हो गया. सीता महान थी,सत्वशाली थी,सती (सत्य पर अटल के अर्थ मेँ) थी,वह देवी ही थी,दिव्यता के सारे गुण उनमें थे. जब उन्होनें दबी जुबा से भी शोषण की शिकायत नहीं की तो उनके आदर्श समर्पण को शोषण नाम देने वाले हम होते ही कौन है? सीता ने अपने समान ही सक्षम राम का वरण किया यह स्वतँत्र निर्णय था. वन मेँ जाने का निर्णय भी मिल बैठ कर सीता का स्वेच्छिक निर्णय था,अपने निर्णय पर ही प्रतिपक्ष से सवाल कैसे हो सकता था? आज के युग में निजी स्वार्थ, निजी स्वतंत्रता, स्वहित आदर्श स्थिति हो सकती है पर उस युग में मन वचन और काया से परस्पर पूर्ण समर्पण आदर्श स्थिति ही नहीं आदर्श व्यवस्था थी.

सबसे पहले शोषण के मायने अर्थ और काल अनुसार उसके भावों का निर्धारण हो। फिर हम आदिकालिन शोषण स्थापित करें। आज हमें जो वस्तु पसंद नहीं तो उस आजकी पसंद को भूतकाल पर कैसे थोप सकते है? सभी कुछ काल, स्वभाव, परिस्थिति और नियति अनुसार बदलता रहता है हम बीत चुके या रीत चुके काल के आदर्श बदल ही नहीं सकते, बदलने की छोडो, हम तो अपनी स्वयं की मानसिकता को किनारे रखकर विश्लेषण तक कर पाने के योग्य नहीं है। हमारे लिए तो आज यह सोचना दुष्कर है कि काल विशेष में कौनसा व्यवहार शोषण माना जाय और कौन सा नहीं? इसलिए अनादिकाल की व्याख्या करना और मुक्त मन से सदा-सर्वदा के लिए शोषण आरोपित कर देना वस्तुतः अनधिकार चेष्टा है।


आज की तरह पहले देवीय गुण त्यक्त नहीं थे, देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था। क्या स्त्री क्या पुरूष सभी देवीय गुणवान बनने और कहलवाने को तत्पर रहते थे। आज की तरह देवी कहलवाना बुरा या निंदा आलोचना का कारण नहीं बना करता था इसलिए लोग अपनाते थे, लालायित रहते थे। त्यागते नहीं थे। सीता का अन्तिम प्रयाण आत्महत्या नहीं, नश्वर संसार से मुक्ति जीवन प्रयोजन पूर्णता के निर्णय रूप समाधी या निर्वाण था। बस इसी तरह शब्द पर सवार होकर संदेह चले आते है। राम कथा के विभिन्न स्वरूप प्राप्त होते है, परफेक्ट घटना या असल सम्वाद क्या थे निश्चय से कोई नहीं कह सकता। फिर भी गलत या सही को नापने का एक मोटा तरीका है हमारे पास। इतनी भिन्न भिन्न कथाओं में इतना विशाल काल बीत जाने के बाद भी राम मर्यादापुरूषोत्तम स्वीकार किए जाते है और सीता सर्वश्रेष्ट सती। अवगुणवाद या निन्दा का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

कष्ट महसुस हो तो कष्ट बनता है और कष्ट लेकर भी किसी को सुखी महसुस करने की मानसिकता देवीय गुण बन जाती है। जैसे अपनो के प्रति राग मोह ममता देवीय गुण है, खट कर, कष्ट उठाकर, भी ममता प्रदान की जाती है क्या इसे कष्ट उठाना कहें ममता का लाभ प्राप्त करने वाले को शोषक कहें? पता नहीं यह सती शब्द से जलाने की कुप्रथा कब आई किन्तु निश्चित ही यह आदिकालीन नहीं है। रामायण काल में तो सत्यव्रत या सती का अर्थ सत्य के प्रति निष्ठावान के लिए हुआ करता था। 

मै एक उस भूतकाल के भावो को समझने के लिए भविष्यकालिन काल्पनिक उदाहरण से समझाता हूँ......भविष्य मेँ प्रेम करना और विवाह करना भी शोषण माना जाएगा क्योकि उस समय की नारियोँ पूरे यक़िन से कह सकेगी कि पुरूष,प्रेम और विवाह मात्र मातृत्व धारण करवाने के लिए ही करते है और इस प्रकार मातृत्व धारण का भयँकर कष्ट मात्र स्त्री को भोगना होता है.ऐसे माहोल में सहज आकर्षण भी हर दृष्टि मेँ कुटिल अत्याचार ही नजर आएगा. और 'मातृत्व' का महिमा-वचन 'देवी' बनाने जैसी चाल के रूप मेँ ही जाना समझा जाएगा. अतीत के प्रश्नों को समझने से पहले युगोँ युगोँ के अंतराल और संस्कृति के विकास क्रम को समझ लेना आवश्यक है.फिर से दोहराता हूँ....रामायण काल बहुत ही प्राचीन है.

मुझे यह पता नहीं चलता कि राम और राम से भक्ति ही कटघरे में क्यों है? क्या इस त्रासदी का अन्तिम कारण आपने राम और राम भक्ति में निश्चित ही कर लिया है। इसका एक संकेत यह भी होता है कि दूसरे सारे कारण है ही नहीं। एक मात्र हमारी 'राम संस्कृति' ही कारण है। यह भी ठीक ऐसा ही आरोप है जैसा संस्कारों में विकार का दोष मात्र पश्चिमि संस्कृति को दिया जा रहा था। कहा जा रहा था जिसकी जैसी नियत होती है उसे पश्चिमि संस्कृति वैसी ही नजर आती है। आज भारतीय संस्कृति पर अगुली उठाते हुए दृष्टि और दृष्टिकोण बदल क्यों जाता है?

गदर फिल्म का विख्यात सम्वाद है.... कहो पाकिस्तान जिंदा बाद!! -पाकिस्तान जिंदाबाद!!.... अब कहो हिंदुस्तान मुर्दाबाद..... जब तक तुम हिंदुस्तान मुर्दाबाद नहीं कहते हम कैसे मान लें तुम सच्चे मुसलमान हो गए हो?....कुछ ऐसी ही फिलिंग आ रही है....पाश्चात्य संस्कृति पर आरोप लगाना छोडो!!.....हमने कहा हम गलत थे चलो छोड दिया.....अब अपनी सँस्कृति की निंदा भी करो....हमने कहा यह हमसे नहीं होगा....यदि अपनी सँस्कृति की निंदा नहीं करोगे तो कैसे मान लें कि तुम प्रगतिशील हो गए हो!!! :) :):(

हम धर्म की क्या रक्षा करेंगे, वस्तुतः धर्म हमारी रक्षा करता है. हिंदु धर्म मेँ फ़तवा जारी करना शुभ या सद्कर्म नहीँ है, न फतवे की हमारी हैसियत बनती है.आप निश्चिंत होकर किसी भी के विरुद्ध खड़ी रह सकती है.आपके विचार आपके अपने है वे विचार जब तक आप तक ही सीमित हो भला उसका किसी से क्या लेनादेना हो सकता है? लेकिन वे विचार अगर सार्वजनिक व्यक्त होकर दूसरों को प्रभावित करने की सम्भावनाएँ खडी करते है,महापुरूषोँ के चरित्र मेँ भ्रांतियाँ पैदा कर मान और आस्था घटाने में सहयोग करते है तो विनम्रता से सँकेत करना ही पडता है जिसे आप भावनात्मक शोषण कहती है.जानता हूँ हिंदु धर्म के पास आत्मघात की हद तक उदारता है आराध्यों का इतना चरित्र हनन स्वीकार कर लेते है कि वे आराध्य ही ना रहे. फिर न रहेगा बांस ना बजेगी बांसूरी. इसलिए आप भले स्वतंत्रता से आराध्यों का चरित्र हनन सोचें पर उस अपनी सोच को सार्वजनिक थोपने का कोई अधिकार नहीँ है. हमारा मात्र इतना सा प्रतिकार है बस. जैसे आप मानती है कि आप सच के साथ है, वैसे ही सभी अन्य भी स्वयं को सच के साथ ही खडा पाते है,राम और सीता के साथ खडा पाते है किंतु स्वयं राम और सीता का सम्मान व अस्तित्व किस में है नहीं जानते.

सामाजिक मान्यताओं को आप पुरानी भारतीय संस्कृति नहीं कह सकते। यदि उछ्रंखलता व असंयम के खिलाफ अनुशासन या संयम के लिए प्राच्य भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है तो इसमें बुरा क्या है? बुराई तो उन 'सामाजिक मान्यताओं' रूढ परम्पराओं, कुरीतियों में है जिसका ढोल पीट कर उन्नति और विकास को बाधित किया जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि करे कोई और भरे वह जिससे हमें अरूचि हो? अर्थात् असंगत रूढियों, गलत परम्पराओं और कुरीतियों के ढंढेरे की सजा निर्दोष प्राच्य संस्कृतियाँ क्यों भुगते? महज इसलिए कि हमें दोनो में अन्तर करने की योग्यता नहीं है इसलिए………

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Jan 11, 2013

एक बेहूदा, मूर्खतापूर्ण आलेख!


आज बात करते हैं एक बेहूदा, मूर्खतापूर्ण आलेख की जिसे अभी तक मेरे सहित 16 ब्लॉगरों ने गूगल में और न जाने कितनो ने फेसबुक और ट्यूटर में शेयर किया। एक को छोड़कर इस ब्लॉग पर आये सभी कमेंट बताते हैं कि आलेख बहुत बढ़िया है। एक विद्वान ब्लॉगर डा0 श्याम गुप्त जी ने इस पोस्ट को पढ़कर इसे एक बेहूदा और मूर्खतापूर्ण आलेख कहा। जी हाँ, मैं अनुराग शर्मा जी के ब्लॉग An Indian in Pittsburgh की ताजा पोस्ट इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत की बात कर रहा हूँ। 

इस पोस्ट में अनुराग शर्मा जी ने दिल्ली कांड के बाद आये निराशाजनक वक्तव्यों की पड़ताल करते हुए बेहतरीन ढंग से सारा ठीकरा पश्चिमि सभ्यता पर मढ़ने और अपनी कमियों को नज़र अंदाज करने वालों की अच्छी खबर ली है। वे वहाँ के सुदृढ़ व्यवस्था तंत्र के बारे में बताते हुए लिखते हैं...जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?  अपनी बात समाप्त करते हुए वे आगे लिखते हैं...आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों, पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को! 

इस पोस्ट की मेरे सहित सभी ने खूब प्रशंसा करी और नायाब टिप्पणियों से नवाजा। पोस्ट न पढ़ी हो तो संबंधित लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। मैं यहाँ इस पोस्ट पर आये कुछ बेहतरीन टिप्पणियों की चर्चा करना चाहता हूँ जिसके लिए इस ब्लॉग का निर्माण हुआ है। 

सुज्ञ जी ने लिखा.....

वस्तुतः जिसे पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण कहा जाता है वह उस संस्कृति को बिना समझे उपर उपर से अपनाया गया बेअक्ल नमूना होता है जैसे गंवार, सुधरे होने या दिखने का ढोंग रचता है।

 डा0 दराल ने लिखा....

शासन , अनुशासन और कानून के पालन के बारे में हमें विदेशों से सीखने की ज़रुरत है।  लेकिन यहाँ तो ढोंगी और पाखंडी गुरुओं को ज्यादा पूजा जाता है।

शिल्पा मेहता जी ने लिखा.....

संस्कृति की बातें करने वाले, और पश्चिम को कोसने वाले, न अपनी संस्कृति को जानते हैं, न पश्चिम की संस्कृति को । बस , मन में कीचड भरी है - तो वही उगल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं ।

सलिल वर्मा जी ने लिखा....

अनुराग जी! जब हमारे यहाँ हिन्दी दिवस के समारोह होते थे तो अधिकतर वक्ता अंग्रेज़ी को गालियाँ देकर, अपना हिन्दी प्रेम दर्शाकर चले जाते थे. जबकि मैं सबसे पहले अंग्रेज़ी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता था, जिस भाषा के विद्वान डॉक्टर बच्चन, फ़िराक और बेढब बनारसी रहे. हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि अपनी अकर्मण्यता का ठीकरा किसी के सिर फोड़ दो. और ऐसे में पश्चिमी सभ्यता का मर्सिया पढकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लो. 

एक निर्धन, निर्वस्त्र स्त्री को जिसके फटे कपड़ों से उसका अर्द्ध-नग्न शरीर झाँक रहा होता है, ऐसे दीदे फाडकर देखते हैं लोग कि बस नज़रों से कच्चा चबा जायेंगे. अब उन सभी सुधारक, नेता, धर्मगुरुओं से कोई पूछे कि उस औरत ने कौन से पश्चिमी लिबास पहन रखे थे. बजाय इसके उसके तन पर वस्त्र पहनाएं या अपनी नज़र झुका लें (अगर मदद नहीं कर सकते तो).. मगर पता नहीं किस सभ्यता के अनुकरण में वो उसे घूरे चले जाते हैं. पिछले दिनों हुए बलात्कार की चर्चा जे साथ ही कई घटनाएँ सामने आईं... मगर जिसका ज़िक्र भी किसी ने नहीं किया वो घटनाएं उन सभ्यता के पहरेदारों के सामने लाने की आवश्यकता है.. 

रेलवे स्टेशन पर न जाने कितनी ऐसी मनोदुर्बल महिलायें हैं जिनके साथ प्रतिदिन बलात्कार होता है और वे बेचारी समझ भी नहीं पातीं कि उनके साथ क्या हो रहा है. सरकार उनके बंध्याकरण का प्रबंध कर उन्हें छोड़ देती है. ये कौन सी पश्चिमी सभ्यता से पनपी है प्रकृति!! 

बहुत सधा हुआ आलेख है अनुराग जी. एक उंगली दूसरों की तरफ उठाकर वे ये भूल जाते हैं कि चार अपनी तरफ भी उठी हुयी है. और तो और, एक और पहलू तो आपने छुआ भी नहीं- सबों ने कहा कि यह एक पाशविक कृत्य है. लेकिन कोई जीव-विज्ञानी यह बताएगा कि आखिर किस पशु में इस प्रकार के लक्षण पाए जाते हैं!!

इस पोस्ट पर संजय जी( मो सम कौन..) ने दो टूक प्रश्न किया...

 व्यावहारिक रूप में क्या होना चाहिये कि ऐसा न हो?

इसका उत्तर भी अनुराग जी ने बड़े ही नपे-तुले शब्दों में दिया...

- भावनात्मक अनुशासन, प्रशासन, न्याय, विधान बनाते समय मानवता को सर्वोच्च शिखर पर रखना, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक व्यवस्था का संतुलन, जीवन का आदर, सक्षम और सच्चरित्र नेतृत्व, आज की समस्याओं का हल आज के परिप्रेक्ष्य मे देखने का प्रयास, वसुधैव कुटुंबकम की तर्ज़ पर हमारी समस्याओं का हल यदि वसुधा पर अन्यत्र खोजा जा चुका है तो उसे मुदितमन से स्वीकार करना, अपनाना (उदाहरण - हिन्दू विवाह पद्धति मे तलाक और इस्लाम में एक-विवाह, ईसाइयों मे दत्तक संतति आदि) ....

- फिरकापरस्ती, निहित स्वार्थ, लोभ, उत्कोच, अपराधी, असामाजिक मनोवृत्ति का दमन या नियंत्रण ...

- नागरिक समानता, सब के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य (सब मतलब "सब")

- स्थानीय समस्याओं के हल के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग, राष्ट्रीय समस्याओं के लिए राष्ट्र भर का 

- समस्याओं का रोना रोने के बजाय उनके हल का प्रयास - जैसे नदी के पानी पर राज्यों के झगड़े के बजाय जल-नियमन के कारगर तरीके ढूँढने और अपनाने का प्रयास 

... समस्याएँ बड़ी हैं तो सुझाव भी लंबे ही होंगे, हर बात का हल मैं या आप पहले से जानते ही हों, यह भी ज़रूरी नहीं, लेकिन हल निकालने के प्रयास या मगजपच्ची में यदि अच्छे, बुद्धिमान और सक्षम (तीनों खूबियाँ एक साथ होना अनिवार्य शर्त है) लोग शामिल हो सकें तो सबका भला ही होगा ...



मैं इस पोस्ट को पढ़कर बड़ा प्रसन्न था लेकिन अभी विद्वान ब्लॉगर डा0 श्याम गुप्ता जी का कमेंट पढ़ा.....



एक दम बेहूदा मूर्खतापूर्ण आलेख है ...

-------क्या आपको ज्ञात है कि अमेरिका में अधिकाँश राज्यों में सिर्फ विवाहिता महिला का रेप ही रेप माना जाता है ...कुंवारी से नहीं( कुंवारी वहां होती ही नहीं ) रेप माना को रेप ही नहीं जाता जिसका अभी हाल में ही भारतीय मूल की नेता ने विरोध किया है और परिवर्तन लाने की बात हो रही है..
---- पश्चिम की बच्चों की संस्कृति भी आप-हम देख चुके हैं कुछ वर्षों में ही ६०-६१ बार बच्चे स्कूलों में गोलियां चलाकर साथियों को मार चुके हैं...`
----- आप को पता है कि अमेरिका में रिश्वत देकर काम कराने को वैध माना जाता है ...
---- प्रत्येक स्थान पर टिप ( वह भी रिश्वत ही है ) को देना आवश्यक माना जाता है अपितु ओफीसिअल रूप में ही टिप ले ली जाती है...

----- ये अक्ल के दुष्मन पश्चिम के नकलची ..कब सुधरेंगे ...अपनी सभ्यता पर चलेंगे ताकि देश सुधरे....

मैं तो विद्वान डा0 श्याम गुप्ता जी के कमेंट को पढ़ने के बाद भी नहीं सुधरा। मैं तो अब भी अपने इसी विचार पर दृढ़ हूँ....

यह हमारी सामंतवादी सोच है जो महिलाओं को कभी घर से बाहर निकलते, काम करते, अपने पैरों पर खड़े होकर मन मर्जी से जीवन जीते नहीं देखना चाहती। यह सोच कभी हाथी पर, कभी पोथी पर. कभी नोटों की बड़ी गठरी पर सवार हो सीने पर मूंग दलने चली आती है।  हाँ इस पर अब थोड़ा संशोधन करते हुए यह भी जोड़ देता हूँ कि...कभी ब्लॉग की शानदार पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में सवार हो हमारे सीने पर मूँग दलने चली आती है।

आपका क्या खयाल है?

नोटः आप अपने विचार यहाँ न लिखकर An Indian in Pittsburgh में ही दे सकते हैं। मैं उसमें आये कमेंट भी पढ़ रहा हूँ।..धन्यवाद। 

Dec 23, 2012

बलात्कार

बलात्कार! बलात्कार! बलात्कार! अखबार, चीखता है बार-बार! लेकिन समूचा ब्लॉग जगत..फेसबुक हिल गया इस बार। जहाँ जाओ वहीं आक्रोश देखने को मिला। पढ़ते-पढ़ते कभी मनुष्य होने पर शक तो कभी शर्मिंदगी का एहसास इस कदर प्रभावी होने लगा कि लगा दिमाग की नसें फट जायेंगी। कितना पढ़ा जाय..कितना कमेंट किया जाय हर ब्लॉग में! अंतर्जाल की दुनियाँ से बाहर निकला तो कहीं कुछ नहीं, विद्यार्थियों और बुद्धिजीवियों की थोड़ी बहुत भीड़-भाड़, जुलूस.. वह भी सीमित दायरे में। कॉलेज, विश्वविद्यालय के सामने थोड़ी बहुत गैदरिंग। टीवी, अखबार बता रहा है दिल्ली की जनता में गहरा आक्रोश है। क्या यह आक्रोश सचमुच इतना है कि राजनेताओं को मतों की चिंता सतायेगी? क्या यह आक्रोश इतना बड़ा है कि देश की आम जनता धर्म, जाति के अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो मतदान करेगी ? काश! ऐसा हो और सरकारें इस दिशा में चिंतित हों। कानून व्यवस्था सुधरे, पूरे देश में फास्ट ट्रैक अदालतें गठित हों। यह सब जरूरी है लेकिन काश! जो भी इससे चिंतित हैं वे अपनी सामाजिक सोच के बारे में भी पुनर्विचार करें! यह एक सामाजिक समस्या है इसका हल हमारे समाज को ही करना है। निःसंदेह मृत्यु का भय, सजा का भय अपराधी को अपराध करने से रोकता है लेकिन समाज यह भी तो तय करे कि नारी का अपमान अपराध है। विवाह में दहेज की मांग करना, जबरी  लेना और मजबूरी में देना, दोनो अपराध है। कानून तो है ही लेकिन कौन मानता है? क्या हम सभ्य कहलाने वाले लोग, किसी न किसी बहाने से रोज इस कानून को नहीं तोड़ते? ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.. बेटा ही पैदा हो..सामर्थ्यवान हुए तो पैदा ही नहीं होने देते..न चाहने पर भी पैदा हो गईं तो मन ही मन भाग्य को कोसते हुए  झूठा राग अलापते फिरते हैं..लक्ष्मी आई! लक्ष्मी आई! विवाह के लिए जन्म के बाद से ही दहेज जुटाना प्रारंभ कर देते हैं। बार बार इनके कारण ईज्जत खतरे में पड़ जाती है। मजा यह कि बगैर इनके सृष्टि भी नहीं चलती। सृष्टि चलती होती तो? हे भगवान! तुमसे कोई चूक तो नहीं हो गई? नर-नारी दोनो को स्वतंत्र कर देते..जो चाहे जैसे चाहे  भोग..संभोग करे.. बच्चे पैदा करे..हे अर्द्ध नारीश्वर! तूने प्राणी मात्र को जिस्म से भी दोगला क्यों नहीं बनाया?

इस विषय में ब्लॉग जगत की हलचल को मैं जितना देख पाया उसमें कुछ पोस्ट ऐसी आईं जिसने दिमाग को हिला कर रख दिया। नारी ब्लॉग से सबसे पहले पूरी घटना से परिचित हुआ। धीरे-धीरे पोस्ट दर पोस्ट..लेकिन सक्रिय और सार्थक भूमिका निभाई भाई गिरिजेश जी ने। खुद को आलसी कहते हैं लेकिन उनकी सक्रियता देख कर ऐसा लगा कि वे खुद को आलसी इसलिए कहते हैं कि जितना लिखना चाहते हैं लिख नहीं पाते। न लिख पाने की बेचैनी से ही वे खुद को आलसी समझते हैं वरना जितना वे लिखते हैं उतना तो हम सोच भी नहीं पाते। जी हाँ, आज मैं बात कर रहा हूँ उनके इस आलेख की... 

बलात्कार, धर्म और भय ...इस आलेख को आपने पढ़ा होगा। नहीं पढ़ा है तो कुछ जरूरी है जो आपसे छूट गया। उन्होने रामायण और महाभारत के दृष्टांत देकर यह समझाने का प्रयास किया है कि नारी को लेकर शक्तिशाली पुरूषों की सोच क्या थी? उन्होने आईना दिखाने का प्रयास किया है कि राष्ट्र, धृतराष्ट्र की तरह अंधा है। हम सब में रावण और दुःशासन बैठा है। समाधान के लिए वे आगे लिखते हैं..

..यदि ट्रायल तेज हो और अल्पतम समय में अपराधी दंडित हों तो अपराधी सहमेंगे। ऐसी घटनायें निश्चित ही कम होंगी। होता यह है कि ढेरों जटिलताओं और लम्बे समय के कारण या तो अपराधी छूट जाते हैं या बिना दंडित हुये ही परलोक सिधार जाते हैं या दंडित होने की स्थिति में भी उसका भयावह पक्ष एकदम तनु हो चुका होता है जो कोई मिसाल नहीं बन पाता। विधि में संशोधन कर ऐसे अपराध के लिये मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये लेकिन तब तक न्याय प्रक्रिया को त्वरित करने से कौन रोक रहा है?..

इस पोस्ट पर शिल्पा मेहता जी की तीखी प्रतिक्रिया सोचने पर विवश करती है....

हम सब - हम ब्लोगर भी, सभी - इसी व्यवस्था के भाग हैं । नारीवादी बनने वाले भी, मानव वादी बनने वाले भी और पुरुषवादी बनने वाले भी । इस ही ब्लॉग जगत में - जो हमारे समाज का प्रतिनिधि आइना है - (जो बाकी समाज से कहीं बेहतर होना चाहिए क्योंकि यहाँ कम से कम सब पढ़े लिखे तो हैं न ?) मगर इस प्रबुद्ध ब्लॉग जगत में भी यही एटीट्यूड देखती आई हूँ । अत्यंत गूढ़ ग्यानी माने जाने वाले जन भी स्त्रियों को अलग (नीचे) नज़रिए से देखते दिखे । अपने परिवार की स्त्रियों को मान और प्रेम देते हुए भी (जो अपने आप में बहुत महानता का द्योतक है हमारे देश की मानसिकता को देखते हुए - इस देश में तो वह भी नहीं पाया जाता) दूसरी स्त्रियों को - जो जानी पहचानी नहीं हैं, सिर्फ "स्त्री" हैं - उनके लिए एक हिकारत का भाव जब इस पढ़े लिखे "प्रबुद्ध" वर्ग में है - तो बाकी अनपढ़ लोगों से क्या आशा रखी जाए ।

वे आगे लिखती हैं....

युधिष्ठिर और भीष्म के चरित्रों से मुझे सख्त चिढ है , और शायद हर स्त्री को होगी । 

राम - जो अपनी स्त्री के प्रेम में इतना बड़ा युद्ध कर गए, उनके चरित्र पर नारीविरोध के छींटे डालने से भी नहीं चुके हमारे महान ग्रंथकार । उन पर भी सीता की अग्नि परिक्षा और परित्याग जैसे लांछन मढ़ दिए । ग्रंथों में "क्षेपक" की बातें करने वाले यह नहीं मानते कि ये मूर्खतापूर्ण किंवदंतियाँ भी क्षेपक हैं । पता नहीं जंगल में सीता के नाम पर रोते बिलखते तड़पने वाले राम के लिए इस मूर्ख समाज ने ये लांछन स्वीकार कर कैसे लिए ?? लेकिन हम वही समाज हैं न - जो हर सुनी सुनाई मान लेते हैं ?लेकिन उस "रावण" के ब्राह्मणत्व और ज्ञान के रक्षकों को राम को बदनाम करना था न ? कैसे करते ? 

जानती हूँ कि आप यह दर्द महसूस कर पा रहे हैं । क्योंकि आपके लिए स्त्री एक शरीर भर नहीं, जीवन का खम्बा है । लेकिन बस, दो दिन हंगामा होगा, फिर न्यूज़ वालों को नया विषय मिल जाएगा और यह भुला दिया जाएगा । हम ब्लोगर्स को भी नया विषय मिल जाएगा जिस पर हम पोस्ट लिखेंगे । हम सब अपने अपने जीवन की आपाधापी में इतने उलझे रहते हैं, किसे समय है किसी अनजान आँख के आंसू याद रखने का ? 

और शायद यह "केस" न भी भुलाया जाए - तो यह एक केस जो चर्चा में आया - इसके लिए एक फ़ास्ट ट्रेक सुनवाई हो जायेगी - क्योंकि सभी अपराधी आखिर गरीब तबके से हैं - तो उनके पास पैसा नहीं है कि वे इस किस्से को दबा सकें । राम जेठमलानी जैसे वकील पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग करते हैं । और खुद वकील ही ऐसे अपराधियों को डिफेंड करते हैं, यदि अपराधी धनवान हो तो । पुलिस कमिश्नर क्या करेगा ? कोई बड़ा आदमी बलात्कारी होता - तो केस दब जाता, कोई बड़ा वकील उसे बचा लेता, न्यूज़ वालों को भी अपना मुआवजा मिल जाता और सब चुप । 

और बाकी "केस" ???? बहुत दुखद है कि यहाँ स्त्री सिर्फ एक शरीर है, सिर्फ एक केस है :( :( 

इस देश में जो न्यूज़ में आ जाए उसका दर्द बड़ा और बाकी सब का गौण है । दूसरी बलात्कार पीड़ीताओं के नाम याद हैं किसी को ? किसी को शाइनी की नौकरानी याद है ? अरुणा शान्बाघ को टिप्पणी करने वाले वंदना शान्बाघ लिखते हैं .... और ये वे "केस" हैं जो चर्चित हुए - जो चर्चित न हुए उनका क्या ? 

हम महिला भ्रूण ह्त्या की बुराई करते हैं, और यह बुराई है भी । लेकिन क्या इस घुटन में सांसें लेती माँ का मन यह न चाहेगा कि जिस संसार में वह जी रही है उसमे उसकी बेटी सांस न ले ??

गिरिजेश जी इतने से ही नहीं रूके। अपनी दूसरी पोस्ट में उन्होने सभी ब्लॉगरों से मार्मिक अपील की है..


आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश,  लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।

इस अपील के संबंध में श्री रवि शंकर श्रीवास्तव जी की टिप्पणी में आया सुझाव बहुत अच्छा है...

कोई बैनर या आर्टवर्क तैयार किया जाए जिसे हर कोई अपने ब्लॉग/फ़ेसबुक वॉल/ ट्विटर इत्यादि पर पोस्ट करे तो और अच्छा. अलबत्ता बैनर के साथ अपने विचार भी जोड़ सकते हैं...

आलसी की बेचैनी कल आई उनकी पोस्ट में भी झलकती है। जिसमें वे स्वयम् एक ड्राफ्ट तैयार कर रहे हैं...


हम गिरिजेश जी को उनके इस विलक्षण आलस्य के लिए साधुवाद देते हैं और आशा करते हैं कि समस्त ब्लॉग जगत का सहयोग उन्हें मिलता रहेगा। बाबा की कृपा उन पर सदा बनी रहे ...

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Dec 16, 2012

हम पढ़ें, लिखें या करें ब्लॉगिंग...!

(1) न दैन्यं न पलायनम्....

यह प्रवीण पाण्डेय जी का ब्लॉग है। जानता हूँ, इससे सभी परिचित हैं। मैं बस भूमिका के लिए बता रहा हूँ। पिछले दिनो इस ब्लॉग पर एक पोस्ट आई.. पढ़ते-पढ़ते लिखना सीखो। शीर्षक पढ़कर तो ऐसा लगा कि यह बच्चों को कोई उपदेश देने वाली पोस्ट है लेकिन पढ़ने के बाद एहसास हुआ कि यह हमारे जैसे बेचैन लोगों की व्यथा-कथा है।  इस पोस्ट के माध्यम से जो विमर्श उठाया गया है वह यह..

प्रश्न बड़ा मौलिक उठता है, कि यदि इतना स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण लिखा जा चुका है तो उसी को पढ़कर उसका आनन्द उठाया जाये, क्यों समय व्यर्थ कर लिखा जाये और औरों का समय व्यर्थ कर पढ़ाया जाये ?

ब्लॉग और कमेंट तो आप लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं लेकिन यहाँ मेरे कमेंट के अलावा कुछ ऐसे कमेंट हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे...

“जो भी जानने योग्य है, वह सब इन पुस्तकों में है, यदि कुछ लिखा जायेगा तो वह इसी ज्ञान के आधार पर ही लिखा जायेगा।” मैं असहमत हूँ इस धारणा से कि पुराना ही बहुत है पढ़ने को तो नया क्या लिखा जाय। यदि कबीर और तुलसी ने ऐसा सोचा होता तो आज हमारे पास क्या वह अनमोल निधि होती जो वे छोड़ गये। तुलसी ने तो बाकायदा घोषित किया था कि वे कुछ नया नहीं कह रहे हैं। कबीर ने इसके उलट यह कह दिया था कि “मसि कागद छुयौ नहीं कलम गही नहिं हाथ”

दर‍असल विद्या अथवा ज्ञान का अर्जन करना अलग बात है और कुछ सर्जन करना बिल्कुल अलग। मनुष्य का मस्तिष्क एक प्रोसेसर का काम तो करता ही है किन्तु इसमें नये विचार और नयी धारणाएँ जन्म भी लेती हैं। दुनिया में साहित्य, संगीत, कला इत्यादि के क्षेत्र में जो बड़े रचनाकार हुए हैं वे एक प्रकार से गिफ़्टेड हैं कि उनके मस्तिष्क में नयी रचना जन्म लेती रहती है। यह एक अद्‍भुत प्रक्रिया है। प्रकृति ने कम या अधिक मात्रा में प्रायः सभी मस्तिष्कों में यह रचनात्मक प्रवृत्ति या शक्ति (potential) दे रखी है। अनुकूल वातावरण पाकर इसका विकास हो जाता है। यहाँ एक अच्छे गुरू की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन अनिवार्य नहीं।



DrKavita Vachaknavee ने लिखा....

जो चार शब्द लिख कर अपने अहम् का पहाड़ खड़ा करने में लग जाते हों, उन्हें अवश्य लिखना बंद कर देना चाहिए(क्योंकि वह अहम् को विसर्जित करने के काम से उलटा कर रहा है) परंतु जो बड़े सरोकारों को लेकर लिख रहा हो उसे और और लिखना चाहिए। इसीलिए सरोकारों की व्यापकता ही किसी भी लेखक का कद और किसी भी लेखक का औचित्य भी प्रमाणित करती है। दूसरे, प्रत्येक के अनुभव और अनुभूति भिन्न होती है... उसकी अभिव्यक्त भी भिन्न ही होगी। इसलिए ऐसा कभी नहीं होगा कि लिखने के विषय चुक गए सो, अब बस !

मैने लिखा...

हम सभी बेचैनी में जीने वाले लोग हैं। वृत्ति और प्रवृत्ति की खाई जितनी चौड़ी होती जाती है आदमी उतना ही बेचैन होता जाता है। हमने बेचैनी अपना ली है तो यह दंश हमे झेलना ही पड़ेगा। जीविका के साथ-साथ जीवन जीना भी पड़ेगा। कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है। कभी कभी घर, कभी शहर रूठ जाता है। हम सुविधानुसार लिखने वाले लोग हैं। जिनको आप पढ़ते हैं उनमे अधिकांश महान लेखक वे हुए जिन्होने सुविधाओं की चिंता नहीं की लिखा और बस लिखा। तुलसी, कबीर, गालिब, निराला..ऐसे ही जाने कितने महान लेखक हुए जो भूख सहते थे यहाँ। घर-परिवार छोड़कर निरंतर सत्य की खोज में, साहित्य साधना में लगे रहे। हम भूख क्या, थोड़ी असुविधा भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। लेकिन एक खुशी है कि जीवन भले मनमर्जी से न जी पाते हों लेकिन जीवन को देखते, महसूस करते और अपने सामर्थ्य के अनुरूप अभिव्यक्त तो करते ही रहते हैं। संसार अच्छा हो इसकी दुआ करते हैं और सुना है, दुआओं का असर होता है । सरस्वती कब, किससे, क्या लिखवा दें! कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए पढ़ते रहें और लिखते रहें...

इस विषय में श्री अनूप शुक्ल जी के विचार भी बड़े काम के हैं....

तो भैया लब्बो-लुआब यह कि अच्छा और धांसू च फ़ांसू लिखने का मोह ब्लागिंग की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। ये साजिश है उन लोगों द्वारा फ़ैलाई हुयी जो ब्लाग का विकास होते देख जलते हैं और बात-बात पर कहते हैं ब्लाग में स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है। इस साजिश से बचने के लिये चौकन्ना रहना होगा। जैसा मन में आये वैसा ठेल दीजिये। लेख लिखें तो ठेल दें, कविता लिखें तो पेल दें। ....पूरा पढ़ने का मन हो तो यहाँ जाना होगा।

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(2) सुनिए मेरी भी.... 

प्रवीण शाह जी अपने इस ब्लॉग में शानदार विज्ञान कथा लिख रहे हैं। चार किश्त लिख चुके हैं। यदि आप विज्ञान कथाओं या जासूसी कथाओं के शौकीन हों तो मूड बदलने के लिए यहाँ जा सकते हैं। इन पोस्टों पर आई टिप्पणियों में एक मजेदार बात यह देखने को मिली कि कथा जितनी रोचक हो रही है, कमेंट उतने कम आ रहे हैं! कमेटस् पर मत जाइये शौकीन हों तो पढ़ आइये। आप पढ़कर रोचक.. से कुछ अधिक नहीं लिख पायेंगे ।

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(3) क्वचिदन्यतोsपि.. 

डा0 अरविंद मिश्र जी के इस ब्लॉग से सभी परिचित हैं। फिलवक्त मिश्र जी सोनभद्र की एक पुनरान्वेषण यात्रा पर हैं। विज्ञान कथा से मुँह मोड़ वैज्ञानिक ढंग से वीर लोरिक और मंजरी की ऐतिहासिक प्रेम कथा से हमे परिचित करा रहे हैं। यह पोस्ट भी काफी रोचक है। पोस्ट का एक अंश देखिये...

....मंजरी की विदाई के बाद डोला मारकुंडी  पहाडी पर पहुँचाने  पर नवविवाहिता मंजरी लोरिक के  आपार बल को एक बार और देखने  के लिए  चुनौती देती है और कहती है कि वे अपने प्रिय हथियार  बिजुलिया खांड (तलवार नुमा हथियार) से एक विशाल  शिलाखंड को एक ही वार में दो भागो में विभक्त कर दें -लोरिक ने ऐसा ही किया और अपनी प्रेम -परीक्षा में पास हो गए -यह खंडित शिला आज उसी अखंड प्रेम की  जीवंत कथा कहती प्रतीत होती है -मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का  सिन्दूर भी लगाया।....

दो भाग में विभक्त पत्थर देखना हो तो आपको वहीं जाना होगा। इस पर आई टिप्पणियाँ बता रही हैं कि इस पोस्ट को लोगों ने खूब पसंद किया है। बस एक बानगी देखिए..


शानदार वर्णन पंडित जी! मेरे लिए तो एकदम नॉस्टैल्जिक है, ननिहाल की बात जो ठहरी! यह सारा इलाका चंद्रकांता संतति के कथानक की पृष्ठभूमि रही है. रिहन्द नदी के बाँध के कैचमेंट एरिया का पूरा जंगल पैदल छान मारा है मैंने. चमत्कृत करता है यह सब!!  लोरिक पत्थर के विशालकाय टुकड़े के खंडित भाग को देखकर साफ़ पता चलता है कि किसी ने सेब को चाकू की धार से दो टुकड़ों में काट दिया हो!! अब आप वहाँ हैं तो ऐसी अद्भुत कहानियाँ और भी मिलेंगी सुनने को!! आभार आपका!!

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(4) 'shashank'.....

चिंतन, विज्ञान कथा, ऐतिहासिक प्रेम कथा मेरा मतलब ऊपर के लिंक के सभी ब्लॉग आप पहले ही पढ़ चुके हों और आपको मेरी यह पोस्ट बोर लग रही हो तो ठहरिए! इतनी जल्दी मत जाइये। मैं आपको ऐसे ब्लॉग से परिचित कराता हूँ जिसे आपने नहीं पढ़ा। शंशांक ..हाँ, यह ब्लॉग हिंदी में ही है लेकिन इसका नाम अंग्रेजी में है।  कु0 स्मिता पाण्डेय के इस ब्लॉग में अभी तक कुल 18 कविताएँ हैं लेकिन टिप्पणियाँ 18 से कम! हिंद युग्म से जुड़े लोग इस लेखिका से परिचित हैं। हिंदयुग्म द्वारा प्रकाशित पहली पुस्तक संभावना डॉट कॉम में भी इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। ब्लॉग शीर्षक ही कविताओं का शीर्षक है। 18 कविताएँ क्रमशः शशांक 1,2,3.....17,18 नाम से प्रकाशित हैं। कविता प्रेमी पाठकों के लिए इनकी कविताएँ अच्छी लगेंगी। इनके दो और ब्लॉग हैं। उनके नाम भी अंग्रेजी में हैं..जिनमें एक ब्लॉग अंग्रेजी का है, दूसरा हिंदी का। इनमे भी टिप्पणियों की संख्या अत्यधिक कम। इनके ब्लॉग को पढ़कर मैने ऐसा महसूस किया कि ये दूसरों के ब्लॉग नहीं पढ़तीं या कमेंट नहीं करतीं। अधिक जानकारी आप ऊपर दिये लिंक पर जाकर स्वयम् कर सकते हैं। मेरा विश्वास है कि इन कविताओं को पढ़कर आपको खुश हो जायेंगे। कविता की एक बानगी देखिए....
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टांक दिए हैं करीने से
मेरे ही लिए किसी ने
आसमान भर तारे,

ओढा कर ठंडी हवा
सुला दिया करता है,

रोज़ सुबह जलाता है
एक उजला सा सूरज,
सहला कर उठाता है
स्नेहिल सी किरणों से,
पैरों तले बिछाता है
ओस की नाज़ुक चादर ,
जाने कितने रंगों से
भरता है फूलों को,
उडेलता है उनमें खुशबू

चुनता है लम्हों को
बुनता है घटना-क्रम
अच्छा-बुरा सब जोड़
सजाता है ज़िन्दगी,

उसी ने गढ़ा है तुम्हें
जैसे मेरे ही लिए,

उसे जानती नहीं मैं

पर महसूस करतीं हूँ

जैसे तुम शशांक ,
तुम्हें भी कहाँ जाना,
बस प्यार किया है,

डरती हूँ जानने से,
कहीं खो न दूं उसे
जिसे तुममें पाती हूँ।

अगर तुम ख्वाब हो
तो जागना नहीं चाहती
अगर मेरा ख्याल हो
तो इसकी डोर थामे
गुम हो जाना चाहती हूँ
तुममें ही कहीं ...
ऐसे की फिर कभी
किसी को न मिलूं
कहीं भी नहीं।
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