Mar 6, 2014

आयुर्वेद और ब्लॉगरों की माथा पच्ची


आज बात करते हैं एक ही ब्लॉग  न दैन्यं न पलायनम् में प्रकाशित आयुर्वेद श्रृंखला की। वाग्भट्ट की पुस्तक के आधार पर आयुर्वेद के ज्ञान को हम सब से साझा किया है श्री प्रवीण पाण्डेय जी ने।  न ब्लॉग परिचय का मोहताज है न ब्लॉगर। यह श्रृंखला अत्यंत रोचक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है। इसमें दी गई जानकारी हमारी भरतीय संस्कृति में छुपा ज्ञान का वह प्रचुर भंडार है जिससे आप अब जितना ले पायें उतनी आपकी किस्मत। पढ़ा है तो ठीक लेकिन यदि नहीं पढ़ा है तो पढ़ने मात्र से भी कुछ न कुछ लाभ तो होगा ही।  तो अब सीधे आते हैं इस ब्लॉग में प्रकाशित अब तक की बेहतरीन पोस्टों की ओर जिसका उल्लेख पोस्टवार लिंक सहित निम्नांकित है-



चरक, सुश्रुत, निघंटु और वाग्भट्ट आयुर्वेद के चार स्तम्भ हैं। चरक के वृहद और पाण्डित्यपूर्ण कार्य को उनके शिष्य वाग्भट्ट ने प्रायोगिक आधार देकर स्थापित किया। वर्षों के अध्ययन के पश्चात जो निष्कर्ष आये, वही हमारी संस्कृति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बस गये। कई पीढ़ियों को तो ज्ञात ही नहीं कि प्राचीन काल से पालन करते आ रहे कई नियमों का आधार वाग्भट्ट के सूत्र ही हैं। दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्या, त्रिदोष आदि के सिद्धान्त सरल नियमों के रूप में हमारे समाज में रच बस गये हैं। 



आयुर्वेद का आधार स्वयं को, प्रकृति को और दोनों के परस्पर संबंधों को समझने से प्रारम्भ होता है। प्रकृति के सिद्धान्त न केवल दर्शन का विषय हैं, वरन स्वास्थ्य के प्राथमिक सूत्र भी हैं। हो भी क्यों न, शरीर भी तो प्रकृति का ही तो अंग है। भोजनचर्या, दिनचर्या और ऋतुचर्या आयुर्वेद की समग्रता और व्यापकता को स्थापित करते हैं। आप भी ध्यान दें, स्वास्थ्य संबंधी सलाहें जो हमें अपने बुज़ुर्गों से मिली है, उसका कोई न कोई संंपर्कसूत्र हमें वाग्भट्ट के कार्य में मिल जायेंगे।



टिप्पणीः-

इस पोस्ट पर सतीश सक्सेना जी के प्रश्न से पुस्तक मिलने का स्रोत पता चला..http://www.rajivdixit.com/?p=245
८ लेक्चर हैं, वाग्भट्ट के सूत्रों पर

http://rajivdixitbooks.blogspot.in

४ पुस्तकें हैं, पीडीएफ फॉर्मेट में

केवल राम जी ने लिखा- 

"पत्र पत्रिकाओं में निकलने वाले स्वास्थ्य संबंधी अध्ययन अब बेमानी लगते हैं, किसी कम्पनी विशेष 

के स्वार्थ से प्रेरित लगते हैं, किसी कारण विशेष से प्रायोजित लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो क्यों एक 

ही विषय के बारे में परस्पर विरोधाभासी अध्ययन प्रकाशित होते।"

प्रवीण जी ने P.N. Subramanian के केरल अनुभव के बारे में अपने कमेंट में बड़ी अच्छी बात लिखी है-

दु:ख तो इस बात का ही है कि लोग आयुर्वेद को केवल एक चिकित्सा पद्धति मानते हैं और उस समय याद 

करते हैं जो रोग चढ़ चुका होता है। जीवनशैली में आयुर्वेद को समझने और अपनाने के लाभ अद्वितीय, 

अद्भुत हैं। केरल में भी चिकित्सीय पक्ष अधिक प्रचलित है, जीवनशैली में ढालने की बातें बहुत कम लोग 

बताते हैं।



यह पोस्ट प्रकृति चक्र के दार्शनिक पहलू को खूबसूरती से उभारता है। कुछ अंश देखिए...

शरीर माटी का बना है, यह कोई अतिश्योक्ति नहीं। जितने भी तत्व शरीर में होते हैं, वे सारे के सारे तत्व माटी में भी मिल जाते हैं। यही कारण है कि शरीर माटी से ही पोषित होता है, उसी से ही जीवन पाता है और अन्ततः मृत्यु के पश्चात माटी में ही मिल जाता है। आश्चर्य नहीं करना चाहिये कि माटी हमारे लिये कितनी महत्वपूर्ण हैं।

..माटी के विशेष तत्व अन्न के दाने में से होते हुये मेरे शरीर में पहुँचते हैं और मुझे जीवित रखते हैं...

..माटी से तत्वों को एकत्र करने का कार्य पौधे करते हैं। इन पौधों को कम्प्यूटर की भाषा में कहा जाये तो ये एक विशेष प्रकार के सॉफ़्टवेयर हैं जो माटी से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालते हैं। ...


..भोजन पचने के बाद जो शेष बचता है वह पुनः प्रकृति में मिल जाता है। जब तक शरीर जीवित रहता है, प्रकृति से पोषण पाता रहता है, अन्त में शरीर माटी में मिल जाता है।..


...प्रकृति के इस चक्र में हम एक याचक के रूप में खड़े हैं, न जाने क्या सोचकर हम स्वयं को नियन्त्रक मान बैठते हैं।..


टिप्पणीः-


इस पोस्ट को पढ़कर Anupama Tripathi इतनी उत्साहित हुईँ कि उन्होंने एक सुंदर संस्मरण ही लिख दिया...  


पापा ने गिलोय के पौधे की फरमाइश की और श्रीमान जी ने मंगवाया |बहुत शौक से हमने उसे बगीचे में लगाया |उसकी बेल होती है ,फलते फलते पीछे टेलेफोन के खंबे पर चढ़ गई | |माली एक नया नया लगाया था |रसोई में कुछ बना रही थी सो माली को कहा यहाँ बगीचे में सफाई कर दो |उसने ऐसी सफाई करी कि वो बेल ही साफ हो गई |शाम को जब पापा बाहर आए देखा उनकी प्रिय बेल पूरी साफ हो चुकी है |गुस्से से लाल मुँह ||बस इतना ही बोले ...देखो तुम्हारे माली ने क्या किया ...!!श्रीमान जी इतना ही बोले ....तुम्हें ध्यान रखना चाहिए था .....!!अब मैं शांत खड़ी रही |मुँह से इतना ही निकाला ''हे ईश्वर ये क्या हुआ ...!!" अब ऊपर देखा तो खंबे पर पूरा गुच्छा अभी भी लटक रहा था |आते जाते हम सब उसी गुच्छे को देखते और उसके पुनर्जीवित हो जाने की बात सोचते ||धीरे धीरे दैनिक दिनचर्या में उलझे ये भी भूल गए |कुछ समय बाद एक दिन पापा पीछे जब आए तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं |उस बेल ने अपनी जड़ें माटी तक फेंक दीं थीं |और पुनः लहलाहा रही थी ....!! 



तन्त्र जितना बड़ा होता जाता है, अपने अस्तित्व के लिये संतुलन पर निर्भर होता जाता है। संतुलन का प्रमाण प्रकृति में स्थित चक्रीयता से मिल जाता है। ऋतुयें विधिवत आती हैं, ग्रहों के बीच की दूरियाँ सधी हैं, दिन के बात रात की निश्चितता रहती है, एक मध्य स्थिति है जिसके इधर उधर प्रकृति जाती तो है, पर लौट कर अपनी संतुलित स्थिति में लौट आती है। धारण करने वाले सारे अवयव संतुलन के प्रतिमान होते हैं। बुद्ध का मध्यमार्ग विचारों और व्यवहारों के अभूतपूर्व संतुलन का दर्शन है। बुज़ुर्गों का संतुलित व्यवहार परिवारों को साधता है। संतुलन का दर्शन व्यापक है, यह प्रकृति का सिद्धान्त है और शरीर पर भी विधिवत लागू होता है।


इन तीन सिद्धान्तों को एक शब्द से परिभाषित किया जाये तो उसे अनुशासन कहा जा सकता है। बहुधा लोग एक अनुशासित जीवन जीने लगते हैं, उसमें प्रकृति के तीनों तत्व संतुष्ट बने रहते हैं, शरीर स्वस्थ बना रहता है। कहें तो प्रकृति के अनुशासन में रमे लोग प्रकृतिलय हो जाते हैं। हम अनुशासन के नियन्त्रण में यदि नहीं भी बंधें रहना चाहें तो भी इन तीन सिद्धान्तों को अलग अलग स्तर पर सम्मान अवश्य करते रहें। हम इन सिद्धान्तों का जितना सम्मान करेंगे, स्वयं को प्रकृति को उतने ही निकट पायेंगे, प्रकृति से शरीर का उतना ही कम घर्षण होगा, हम उतने ही स्वस्थ और ऊर्जान्वित रहेंगे।

टिप्पणी-

इस पोस्ट पर मनु त्यागी जी ने कमेंट किया-

इस विषय को समझना कठिन ही है पर यदि आप अगली पोस्ट में वात पित्त और कफ के पक्ष को भी 

थोडा सरल करें तो बढिया रहेगा और आप ऐसा कर सकते हैं ये उम्मीद है।


इस कमेंट के उत्तर में प्रवीण पाण्डेय जी ने अगली पोस्ट वात, पित्त और कफ पर ही लिख डाली।


(4) कफ, वात, पित्त :- 

जीवन जीना प्रकृति चक्र का अंग होना है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलन प्रिय है। जिस अनुपात में यह संतुलन शरीर में रहता है, वह हमारे शरीर की प्रकृति है। कुछ में कफ, कुछ में पित्त, कुछ में वायु या कुछ में इनके भिन्न अनुपात प्रबल होते हैं। यह संतुलित स्थिति हमारा शारीरिक ढाँचा, मानसिक स्थिरता और बौद्धिक व्यवहार निर्धारित करती है। यही संतुलन स्वास्थ्य परिभाषित करता है। प्रकृति से हमारे सतत पारस्परिक संबंधों में ये तीन तत्व घटते बढ़ते रहते हैं। किसी भी एक तत्व का शरीर में अधिक होना ही प्रकृति से हमारे घर्षण का कारण है। यही घर्षण रोग का कारण है। जब तक जीवनशैली या औषधियों से संतुलन की स्थिति में वापस पहुँचकर घर्षण कम किया जा सकता है, रोग साध्य रहता है। जब यह असंतुलन असाध्य हो जाता है, शरीर प्रकृति चक्र से बाहर आ जाता है, प्राण शरीर त्याग देते हैं।

इस पोस्ट के किस अंश को यहाँ कट पेस्ट करूँ किसे छोड़ दूँ! ब्लॉग में जाकर पूरी पोस्ट पढ़ने में ही आनंद है।
इस पोस्ट पर कमेंट करते हुए श्री विरेन्द्र कुमार शर्मा जी लिखते  हैं...

अष्टांग हृदयम को मथ के आपने मख्खन परोस दिया है!


जल सभी रसों का उत्पादक है, पाचन प्रक्रिया में भोजन से जो पोषक तत्व सोखे जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं, रसों से ही रक्त आदि का निर्माण होता है। जल वैसे तो जिसमें मिलाकर पिया जाता है, उसी के गुण ले लेता है, पर इसके अपने ६ गुण भी हैं, शीत, शुचि, शिव, मृष्ट, विमल, लघु। धरती पर आया जल वर्षा का ही होता है, समुद्र से वाष्पित जल अन्य जल स्रोतों से वाष्पित जल की तुलना में अधिक क्षारीय होता है। वर्षाकाल का प्रथम जल और अन्य ऋतु में बरसा जल नहीं पीना चाहिये। बहता जल पीने योग्य होता है, पहाड़ों और पत्थरों से गिरने से जल की अशुद्धियाँ बहुत कम हो जाती हैं। स्थिर जल के स्रोतों में वही जल श्रेष्ठ होता है जिसे सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श मिलता रहे। यदि जल मधुर है तो त्रिदोषशामक, लघु और पथ्य होता है। क्षारीय है तो कफवात शामक, पर पित्त को बढ़ाता है। कषाय हो तो कफपित्त शामक, पर वात को बढ़ाता है।


इस पोस्ट को पढ़कर आपके आँखों की कालिमा जा सकती है। इसमें इसके भी उपाय हैं। लार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्रवीण जी लिखते हैं... (मैने पान घुलाकर यह पढ़ा तो मुझे कैसा लगा होगा आप सोच सकते हैं)...जो लोग पान मसाला, गुटका, तम्बाकू आदि खाकर थूकते रहते हैं, उनसे बढ़ा अभागा कोई नहीं।


इस पोस्ट पर डॉ श्यामजी और श्री कालीपद प्रसाद जी ने अपना पक्ष रखते हुए कुछ आपत्तियाँ लिखी हैं जैसे...वाष्पित जल न क्षारीय होता है न अम्लीय ..यह वैज्ञानिक तथ्य है ।  


सिद्धान्त बढ़ा सीधा है, खाना तभी खाना चाहिये जब जठराग्नि तीव्र हो, या जमकर भूख लगे। सुबह का समय कफ का होता है, जैसे जैसे सूर्य चढ़ता है, जठराग्नि बढ़ती है। वाग्भट्ट के अनुसार सूर्योदय के ढाई घंटे के बाद जठराग्नि सर्वाधिक होती है, भोजन उसी के आसपास कर लेना चाहिये। भोजन करने के डेढ़ घंटे बाद तक यह जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। अधिकाधिक भोजन उसी समय कर लेना चाहिये। ...
...दोपहर में यदि कुछ खाना हो तो वह सुबह का दो तिहाई और रात को भोजन सुबह का एक तिहाई हो। जिस तरह दिया बुझने के पहले जोर से भड़कता है, सूर्य डूबने के पहले जठराग्नि भी भड़कती है। रात का भोजन सूर्योदय के पहले ही कर लेना अच्छा, उसके अच्छे से पचने की संभावना तब सर्वाधिक है। ...सूर्यास्त के बाद कुछ ग्रहण करना पूर्णतया निषेध नहीं है, दूध सोने के पहले ले सकते हैं, वह अच्छी नींद और पाचन में सहायक भी है। 


इस पोस्ट के कुछ अंश देखिए जिन्हें मैने बीच-बीच से छांट-छांट कर लगाया है.... 

वाग्भट्ट का पहला सिद्धान्त है कि जिस भोजन को सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श न मिले, वह भोजन नहीं, विष है जो धीरे धीरे हमें ही खा जायेगा। 

वाग्भट्ट का दूसरा सिद्धान्त है कि जिस अन्न को खेत में पकने में अधिक समय लगता है, उसे पकने में उतना ही अधिक समय लगेगा। यहाँ पर गति का सिद्धान्त दिखता है।

वाग्भट्ट का तीसरा सिद्धान्त है कि भोजन बनने के ४८ मिनट के अन्दर उसको खा लेना चाहिये। जैसे जैसे देर होती है, उसकी पौष्टिकता कम होती जाती है। २४ घंटे के बाद भोजन बासी हो जाता है और पशुओं के खिलाने के योग्य भी नहीं रहता है।

वाग्भट्ट का चौथा सिद्धान्त है कि किसी भी कार्य में यदि अधिक गति से किया जाये तो वह वात उत्पन्न करता है।

प्रेशर कुकर पहले दो सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। फ्रिज और ओवेन, पहले और तीसरे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। मिक्सी आदि यन्त्र चौथे नियम को तोड़ते हैं। 

हमारी रसोई में चलती परिपाटियाँ आयुर्वेद के सूत्रों का अमृत निचोड़ होता था, वह भी हर छोटी बड़ी प्रक्रिया में सरलता से सहेजा हुआ। चक्की, सिलबट्टा आदि यन्त्रों से न केवल हमारे स्वाद और स्वास्थ्य की रक्षा होती थी, वरन घर में रहने वाली महिलाओं का समुचित व्यायाम भी हो जाता था। आधुनिक यन्त्रों ने स्वाद, स्वास्थ्य और श्रम के सुन्दर संतुलन को नष्ट कर दिया है, हमें भी मशीन बनाकर रख दिया है। अब न हम पौष्टिक खा पा रहे हैं, न स्वादिष्ट खा पा रहे हैं, न स्वस्थ हैं और न ही सुगढ़।

आगे पोस्ट में प्रवीण जी माटी की हांडी पर पके भोजन की बात लिखते हैं। पाठक इसे पढ़कर घबराये से लगते
हैं। कमेंट देखिये.....

पर ये बातें कैसे हो पाएंगी प्रवीण जी। उस युग को, जिसकी आप बात कर रहे हैं, हमने और हमारे पूर्वजों ने देखा था। आज के बच्‍चे को अगर केवल उसके बारे में पढ़ाया या बताया जाएगा तो उससे उनमें उस आदि सुदृढ़ व्‍यवस्‍था के प्रति वो लगाव नहीं पनपेगा, जो हम उसके प्रति उसे देख व अनुभव कर लेने के बाद महसूस करते हैं। और हम नहीं रहेंगे तो आगे इस पर कोई बात करने को भी राजी नहीं होगा, इसे अपनाना तो दूर की बात। और हम आज इसे अपना भी कैसे सकते हैं। गांव में जंगलों से लकड़ी काटने पर वन-संरक्षण के नाम पर बेतुकी पाबन्‍दी जो है। लकड़ी नहीं जलेगी तो चूल्‍हा कैसे जलेगा। हांडी की दाल चूल्‍हे में ही बनकर स्‍वादिष्‍ट होती थी। बहुत सी बातें हैं, जिन्‍हें लागू करने के लिए हमें सब त्‍याग कर हम जैसे बहुत से समवयस्‍कों को सब कुछ शहरी वस्‍तुओं और व्‍यवस्‍थाओं को छोड़कर वापस गांव में जाकर बसना होगा। तब ही आयुर्वेद के सिद्धांत का सही और उचित पालन हो सकता है। शहर में रहकर यकीन जानिए शहरी जीवन जीना और पुरातन व्‍यवस्‍था को अपनाने की हसरत पालने के अलावा कुछ नहीं होगा। यह अपने मन को तसल्‍ली देने के अलावा कुछ नहीं होगा। कुछ हो सकता है तो केवल अपने-अपने गांव जाकर ही कुछ हो सकता है। एक पीढ़ी को तो इसके लिए त्‍याग करना ही होगा। और वह पीढ़ी आप-हमारी ही हो सकती है। अन्‍यथा आगे की पीढ़ी को अपने सामने वो पुरातन व्‍यवस्‍था दिखेगी ही नहीं तो उसे अपनाने की बात तो छोड़ ही दीजिए।

बात ओ आपकी सही है और मैं इस से सहमत भी हूँ। मगर वर्तमान हालात में जहां इंसान के पास सांस लेने के लिए भी फुर्सत नहीं है। वहाँ मिट्टी के बर्तन में दाल बनाने या हाथों की चक्की से आटा पीसने की ज़हमत कौन उठाएगा। पहले सनयुंक्त परिवार होते थे जिनमें घर के सदस्यों में काम बंट जाया करते थे। मगर आज एकल परिवार होते है जिनमें महज़ 3 या चार प्राणियों के लिए इतना कष्ट शायद ही कोई उठाने को राजी होगा। क्यूंकि आजकल तो पति पत्नी दोनों ही कामकाजी होते है फिर यह सब कैसे संभव हो सकता है।

----सही कहा बडोला जी... सब कुछ सत्य है.....पर पीछे लौटना असंभव ...सब कुछ समय पर आधारित है ...परन्तु कल्पना में आनंद तो लिया ही जा सकता है.....
---- पहले हम गुफा में पेड़ों , जंगलों में रहते थे ..न कोइ कानूनी अड़चन न बंधन...अंतहीन स्वतन्त्रता.....अब इतने कानून ..बंधन कि मज़े से चलना भी दूभर ...सड़क पर ऐसे चलो ऐसे मत चलो....दो डंडों पर शिकार को लटका कर नीचे आग जलाकर मज़े से रोस्टेड खाते थे ..... जब उन्नत हुए , नगर बसाये और नौकर-चाकर से श्रम कम होगये, तवे की रोटी खाने लगे ....और उन्नत हुए सब विशेषज्ञ आगये और तमाम ताम-झाम के साथ वैज्ञानिक दृष्टियाँ ...तमाम रोगों से निजात ....पर नए नए रोगों का जन्म ..
--- अच्छा होगा हम पुनः जंगल में ही जा बसें ....परन्तु नगर की सुरक्षा-सुविधाएं...पिज्जा-बर्गर..समोसा-दोसालस्सी, चाय च्च च्च ...???????..कहीं भी कभी भी चैन नहीं ...
----बस एक ही तथ्य सच है कि स्वदेशी पर चलें ...चाहे मध्ययुगीन हो या आधुनिक युग की बात....
...................................................................................................................................................................
नोट:- यह अब तक की प्रकाशित श्रृंखला से है, भविष्य में इस संबंध में जो भी पोस्टें, कमेंट आयेंगी उनको एक ही स्थान पर संग्रहित करने का मन है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये। :)


8 comments:

  1. प्रवीण जी की हर पोस्ट से कुछ न कुछ नई जानकारी व कुछ नया सीखने को मिलता रहता है|
    वाह ! प्रवीन जी की पोस्टो की बहुत ही सुंदर समीक्षा ...! बधाई
    RECENT POST - पुरानी होली.

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  2. महिलाओं के ब्लाग में ज्यादा टिप्पणी होना बहुत अच्छा संदेश है ।

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  3. वाह, इतने संक्षिप्त रूप में स्वयं को पढ़कर आनन्द आ गया।

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  4. बहुत अच्छी जानकारी दी आपने।।

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  5. बहुत अच्छी तरह आपने प्रवीण जी व उनकी पोस्ट से परचित कराया ..........आभार
    http://savanxxx.blogspot.in

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  6. बहुत अच्छी संकलित प्रस्तुति

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  7. आपकी रचनाओं ने ऐसे भिंगाया कि यहाँ उद्गार व्यक्त करने आ गई ।

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